Book Title: Tirthankar Mahavira Part 1
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 413
________________ (३५०) इन्द्र की पूजा उन्होंने ही प्रारम्म की । 'त्रिषष्टि-शलाका-पुरुष-चरित्र' में कथा आती है कि एक बार भरत ने इन्द्र से पूछा किमीदृशेन रूपेण यूयं स्वर्गेऽपि तिष्ठथ ? रूपान्तरेण यदि वा कामरूपा हि नाकिनः ॥ -हे देवपति, क्या आप स्वर्ग में भी इसी रूप में रहते हैं या किसी दूसरे रूप में ? क्योंकि देवता तो कामरूपी (इच्छित रूप बनाने वाले) कहलाते हैं। देवराजोऽब्रवीद् राजन्निदं रूपं न तत्र नः । यत् तत्र रूपं तन्मत्यैने द्रष्टुमपि पार्यते ॥ --राजन्, स्वर्ग में हमारा रूप ऐसा नहीं होता। वहाँ जो रूप है, उसे तो मनुष्य देख भी नहीं सकते। इन्द्र के इस उत्तर पर भरत ने इन्द्र के उस रूप को देखने की इच्छा प्रकट की तो इन्द्र ने उन्हें '.."योग्यालंकार शालिनीम् । स्वांगुली दर्शयामास जगद्वेश्मैकदीपिकाम्' उचित अलंकारों से सुशोभित और जगत्-रूपी मन्दिर में दीपक के समान अपनी एक उँगली भरत को दी। राजा भरत उसे लेकर अयोध्या आये और वहाँ उस उँगली की स्थापना कर उन्होंने अष्टाह्निका उत्सव किया। (त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र पर्व १, सर्ग ६, श्लोक २१४-२२५) इन्द्र-पूजा के प्रारम्भ की यह कथा आवश्यकचूर्णी में भी इसी रूप में आयी है। उसमें उल्लेख है : ताहे सक्को भरगति-रणं सक्का तं मारणसेण दटूठं, ताहे सो भरगति तस्स आकिति पेच्छामि, ताहे सक्का भणति-जेण तुमं उत्तमपुरिसो तेण ते अहं दाएमि एगपदेसं, ताहे एगं अंगुलि सव्वालंकारविभसितं काऊरण दाएति, सो तं दळूण अतीव हरिसं गतो, ताहे तस्स अट्ठाहियं महिमं करेति ताए अंगुलीए आकिति काऊण एस इंदज्झयो, एवं वरिसे वरिसे इंदमहो पव्वतो पढमउस्सवो। (पूर्वाद्ध, पत्र २१३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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