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(३२६) "तुम कहोगे कि मुक्त जीव हैं, इस बात को मैं मानता हूँ। और, जीव का कर्म वियोग रूप ही मोक्ष होता है। इससे जीव की सत्ता तो सिद्ध हो जाती है; परन्तु अशरीर होने से जीव में सुख और दुःख नहीं हो सकते हैं । तुम्हारा यह विचार भी ठीक नहीं है; क्योंकि वे सुख-दुःख समस्त पाप-पुण्य कर्म-रहित सकल संसार समुद्र के पार को प्राप्त करने वाले मुक्तात्मा को स्पर्श नहीं करते । इससे यह नहीं समझना चाहिए कि, सिद्ध में सुख की हानि हो जायेगी। अनाबाध ज्ञान होने से राग द्वेष-रहित मुक्तात्मा को पुण्य जनित सुख और पाप जनित दुःख प्राप्त नहीं होते; किन्तु उस अवस्था में सकल कार्यक्षय जनित स्वाभाविक 'निस्प्रतीकार' निरुपम अप्रतिप्राती सुख मनाने में कोई दोष नहीं।
जरा-मरण से मुक्त तीर्थंकर द्वारा इस प्रकार संशय दूर हो जाने पर प्रभास ने शिष्यों सहित दीक्षा ले ली।
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