Book Title: Tirthankar Mahavira Part 1
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 399
________________ (३३६) अज्ञानवादी - अज्ञान से ही कल्याण होता है। ज्ञान में झगड़ा होता है । पूर्ण ज्ञान किसी को होता नहीं । अधूरे ज्ञान से भिन्न-भिन्न मतों की उत्पत्ति होती है । इसलिए ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं । ऐसी अज्ञानवादियों की मान्यता है । इनके ६७ भेद बताये गये हैं । जीवादि ६ पदार्थों के १ सत्व, २ असत्व, ३ सदसत्व, ४ अवाच्यत्व, ५ सदवाच्यत्व, ६ असदवाच्यत्व, ७ सदसदवाच्यत्व, ये ७ भेद करने से संख्या ६३ होती है । उत्पत्ति के सत्वादि चार विकल्प होते हैं । इस प्रकार ६३ और ४ मिलकर उनकी संख्या ६७ होगी । ' १ - संत १ मसंतं २ असयअवत्तवं ६ जीवाइनवपयाणं संतासंत ३ भवत्तव्व ४ सयअवत्तव्वं ५ । सयवत्तब्वं ७ च सत्त अहो कमेणं पया ||६|| इमाई ठविऊणं ॥ जइ कीरइ अहिलावो तह साहिज्जइ निसामेह ॥ १०० ॥ संतो जीवो को जारणइ ? अहवा किं व तेण नाएणं ? सेस एहिवि भंगा इय जाया सत्त जीवस | एवम जीवाईणऽविपत्तेयं सत्त मिलिय ते सट्ठी | तह अन्नेऽवि हु भंगा चत्तारि इमे उ इह हुंति ||२|| संती भावुप्पत्ती को जागइ किं च तीए नायाए ? | ( पृष्ठ ३३५ की पादटिप्परिण का शेषांश) पढमे भंगे जीवो नत्थि सओ कालओ तयणु बीए । परओऽवि नत्थि जीवो काला इय भंगगा दोनि ॥ ६६ ॥ एव जइच्छाईहिवि परहिं भंगददुगं दुगं पत्तं । मिलिया व ते दुवालस संपत्ता जीवतत्तेणं ॥ ६७॥ एवमजीवाईहिवि पत्ता जाया तओ उ चुलसीई । भेया अकिरियवाईण हुंति इमे सव्व संखाए ॥६८॥ —प्रवचन सारोद्धार सटीक, उत्तरार्द्ध पत्र ३४४-२ यही व्याख्या स्थानांग सूत्र पत्र २६८ - २ आदि अन्य स्थलों पर भी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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