Book Title: Tirthankar Mahavira Part 1
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 389
________________ (३२६) सुख-दुःख पुण्य और पाप से होते हैं । अतः पुण्य-पाप के नाश होने पर सुख-दुःख के नाश हो जाने से, मुक्तात्मा आकाश के समान सुख-दुःख रहित हो सकता है | अथवा मुक्तात्मा देह इन्द्रियादि रहित होने से, आकाश के समान सुख-दुःख रहित होगा; क्योंकि सुख-दुःख प्राप्ति में आधार ती देह ही है । " पाप के फल के समान, कर्मोदयजनित होने से पुण्य फल भी दुःख ही है । इस पर कहा जा सकता हैं कि, तब तो पाप - फल भी सुख रूप माना जायेगा । इसका उत्तर यह है कि ऐसा मानने से प्रत्यक्ष विरोध होगा; क्योंकि अपने अनुभूत सुख-दुःख की दुःख-सुख रूप से ज्ञान नहीं होता है । " हे सौम्य ! जिस कारण से दुःखानुभव के समय में सुख प्रत्यक्ष नहीं है और जो भी माला, चन्दन, अंगना, सम्भोगादि से उत्पन्न सुख है, वह भी दुःख का प्रतिकार - रूप होने से मूढ़ों में पामा ( खुजली ) कंडुयनादि की तरह सुख रूप से जाना जाता है; किन्तु वस्तुत: वह दुःख ही है । अतः यह बात तुम सिद्ध मान लो कि पुण्य फल भी दुःख ही है । " विषय - सुख केवल दुःख के प्रतिकार-रूप होने से चिकित्सा की तरह दुःख ही है । लोक में केवल उपचार से सुख का व्यवहार होता है । बिना वास्तविक वस्तु के उपचार नहीं होता । "अतः जो मुक्त का सुख है, वह दुःख के विनाश होने से और बिना प्रतिकार रूप होने से अनाबाध मुनि के सुख के समान सत्य है । "जिस तरह यह जीव ज्ञानमय होता है और ज्ञानोपघाती आवरण होते हैं, इन्द्रियाँ अनुग्रहकारी होती हैं और सर्वावरण के विनाश होने पर ज्ञानविशुद्धि होती है, उसी तरह यह जीव सुखमय है और पाप उस सुख का उपघातक है, पुण्य अनुग्रहकारी है और पुण्य पाप सबके विनाश में सम्पूर्ण सुख प्राप्त होता है । "और, जिस तरह कम के निवारण हो जाने से मुक्तात्मा सिद्धत्व आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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