Book Title: Tirthankar Mahavira Part 1
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 387
________________ (३२४) स्थिति और धौव्य धर्मवाली ही हैं । केवल पर्यायान्तर मात्र से अनित्यादि का व्यवहार होता है । । " दीपक का सर्वथा विनाश नहीं होता कर अंधकार - परिणाम को धारण करता है, णाम को धारण करता है, घट के कपालादि सर्वथा नाश नहीं होता । वह प्रकाश - परिणाम को छोड़जिस प्रकार दूध दधिरूप परिपरिणामों के प्रत्यक्ष होने से "तुम कहोगे कि, यदि अग्नि का सर्वथा नाश नहीं होता, तो साक्षात् दिखती क्यों नहीं । इसका उत्तर यह है कि परिणाम सूक्ष्मता से मेघविकार अथवा अंजनरज की तरह अग्नि का साक्षात्कार नहीं होता । “पहले अन्य इन्द्रियों से गृहीत स्वर्णपत्र, लवण, सोंठ, हरड़, चित्रक, गुड़ादि समुदायों का फिर से अन्य इंन्द्रियों से ग्रहण होता है और नहीं भी होता । यह पुद्गल परिणाम की विचित्रता है । " जिस तरह वायु आदि के पुद्गल एक-एक इंद्रिय से ग्राह्य होते हैं, उसी तरह अग्नि पुद्गल भी पहले चक्षुग्राह्य होकर बाद में घ्राणेन्द्रिय-ग्राहकता को प्राप्त होते हैं । " जिस तरह परिणामान्तर को प्राप्त होने से 'निर्वाण' शब्द का दीप के साथ व्यवहार होता है, उसी तरह कर्म-रहित केवल अमूर्त जीव-स्वरूप भावरूप अबाध परिणाम को प्राप्त करते हुए, जीव में भी 'निर्वाण' शब्द का प्रयोग होता है । " ज्ञान की अबाधता से मुनि की तरह मुक्तात्मा को परम सुख होता है । आवरण हेतु और बाध हेतु के अभाव होने से आत्मा में अनाबाध प्रकृष्ट ज्ञान है । "ऐसा कहा जा सकता है कि, ज्ञान कारणाभाव से मुक्तात्मा को आकाश की तरह अज्ञानी होना चाहिए । पर ऐसा विचार ठीक नहीं है । उस दृष्टान्त से आत्मा का अचैतन्य होना सिद्ध होगा । अतः मुक्तात्मा में ज्ञान को माना जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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