Book Title: Tirthankar Mahavira Part 1
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 381
________________ (३१८) "पुण्य-पापात्मक कर्म के योग्य ही, कर्म वर्गणागत अयोग्य द्रव्य को ग्रहण करता है; किन्तु परिणाम आदि औदारिक वर्गणागत अयोग्य द्रव्य को नहीं ग्रहण करता है और एक क्षेत्र में स्थित द्रव्य को ही ग्रहण करता है। अन्य प्रदेश-स्थित को नहीं-जैसे कि देह में तेल आदि को लगानेवाला पुरुष धूल . को ग्रहण करता है । उसी तरह रागद्वेष से युक्त स्वरूपवाला जीव भी ग्रहण करता है अथवा नहीं ? "पुद्गल से भरे हुए लोक में स्थूल और सूक्ष्म कर्म का विभाजन ठीक है; लेकिन उसी के साथ कर्म ग्रहणकाल में शुभाशुभ का विवेचन कैसे सम्भव है ? 'वह अविशिष्ट है, इसमें शंका नहीं है। लेकिन, परिणाम और आश्रय के स्वभाव से शीघ्र ही वह शुभाशुभ करता है-जिस प्रकार जीव आहार को। "जिस प्रकार तुल्य ही आहार-परिणाम और आश्रय गाय में दूध उत्पन्न . करता है और विषधर में विष, उसी प्रकार पाप-पुण्य का परिणाम भी है। एक शरीर में एक प्रकार का आहार लिया जाता है। उसमें से सार और असार दोनों परिणाम तत्काल होते हैं । अपना शरीर उस भोज्य पदार्थ का रस, रक्त, मांस रूप, सार-तत्त्व में और मल-मूत्र आदि असार तत्त्व के रूप में परिणित कर देता है-यह सर्वसिद्ध है। इसी प्रकार एक जीव गृहीत साधारण कर्म को अपने शुभाशुभ परिणाम के द्वारा पुण्य और पाप के रूप में परिणित करता है। ___ "सात (सुख) सम्यक्त्व, हास्य, पुरुष-रति, शुभायुनाम और गोत्र यह सब पुण्य है । शेष को पाप जानना चाहिए । चाहे वे तत्काल फल देनेवाली हों या न हों। "पुण्य-पाप के अभाव में, स्वर्ग की कामना के लिए निश्चित अग्निहोत्रादि कर्म व्यर्थ हो जायेंगे । तत्संबंधी सर्व दानादि फल भी व्यर्थ हो जायेगा। "इस प्रकार शंका-समाधान हो जाने पर ३०० शिष्यों के साथ उन्होंने दीक्षा ले ली। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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