________________
(३१६)
कैसे आयेगी। जिससे कि कारण का कार्य स्वपर्याय है और अकार्यरूप जितने पदार्थ हैं, वे कारण के परपर्याय होते हैं ।
" क्या जिस तरह मूर्त-अमूर्त का कारण है, उसी तरह सुखादि का पुण्यपाप रूप कर्म भी मूर्त ही कारण होगा ? जिस तरह प्रत्यक्ष ही सुख आदि के कारण अन्न, माला, चन्दनादि होते हैं, उसी तरह से कर्म भी सुख-दुःख का कारण होगा ।
" ( विरोधी तर्क कर सकता है) प्रत्यक्ष दृष्ट अन्नादि को ही, सुख आदि का कारण मानें तो फिर कर्म का क्या प्रयोजन है ? तुल्य अन्नादि साधनवाले पुरुषों को भी सुख-दुःखात्मक फल में अन्तर रहता है । एक ही अन्न खाने से किसी को आह्लाद और किसी को रोगादि की उत्पत्ति होती है । इस दशा में वह फल सकाररण माना जायेगा । फल-भेद में जो कारण है, वह अदृष्ट कर्म है ।
" ( तुल्य साधन होने पर कर्म के द्वारा, जिससे फल-भेद होता है ) वह घट के समान मूर्त है; क्योंकि शरीरादि में बल को देनेवाला मूर्त ही होता है अथवा देहादि कार्य के मूर्त होने से उसके कारण कर्म को भी मूर्त मानना चाहिए ।
" ( इस पर परपक्ष वाला कहेगा ) क्या देहादि के मूर्त होने से वह कर्म मूर्त है ? या सुख-दुःख का कारण होने से वह अमूर्त है ?
" ( इस प्रश्न का उत्तर यह है कि ) सुखादि का कारण केवल कार्य ही नहीं है, परन्तु जीव भी उसका ( समवायि) कारण है - कर्म को समवायिकार मानें तो इसमें क्या दोष होगा ?
"इस तरह स्वभाववाद का निराकरण करने पर, कर्म में सुख-दुःख कारणत्व और रूपित्व को सिद्ध हो जाने पर, तुम्हारा यह कहना कि केवल पुण्य के अपकर्ष से दुःख का बाहुल्य होता है, अयुक्त हो जाता है । "सुख-दुःख का बाहुल्य पुण्य के अपकर्ष से नहीं होता है, किन्तु अपने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org