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रहकर सेवा करनेवाला ), नागर ( नगर निवासी) लोका:- नगर - निवासी जन ), निगम ( वणिजः - व्यापार करने वाला ), श्रेष्ठि ( नगर मुख्य व्यवहारिणः - नगर का मुख्य व्यवसायी ), सेनापति ( चतुरंगसेनाधिकारिणः ), सार्थवाह ( सार्थनायकाः ), दूत ( अन्येषां गत्वा राजादेश निवेदकाः ) सन्धिपाल ( संधिरक्षका - संधि की रक्षा करनेवाला) इत्यादि के साथ मज्जनघर से निकल कर महाराज सिद्धार्थ सभामण्डप में आये । वहाँ महाराज के सिंहासन से निकट ही महारानी त्रिशला के लिए यवनिका के पीछे रत्नजटित
भद्रासन रखा था ।
दरबार में पहुँचकर महाराज सिध्दार्थ ने कौटुम्बिक को बुलाकर अष्टांगनिमित्त शास्त्रों के जानने वाले स्वप्न - पाठकों को बुलाकर दरबार में लाने की आज्ञा दी । महाराज की आज्ञा शिरोधार्य करके, कौटुम्बिक दरबार से बिदा होकर, स्वप्न - पाठकों के घर गया और महाराज का आदेश उन्हें सुनाया ।
महाराज का आदेश सुनकर स्वप्नपाठकों ने स्नान किया, देवपूजा की, तिलक लगाया । दुःस्वप्न नाश के लिए दधि, दूब और अक्षत से मंगल करके निर्मल वस्त्र धारण किये। आभूषण पहने और मस्तक पर श्वेत सरसों तथा दूर्वा लगाकर क्षत्रियकुंडनगर के मध्यभाग से होते हुए, वे राजदरबार के द्वार पर गये । दरबार के द्वार पर एकत्र होकर, स्वप्नपाठकों ने परस्पर विचारविमर्ष किया और अपना एक अगुआ चुना ।
स्वप्न पाठकों ने आकर स्वप्नों का फल इस प्रकार कहा :
एवं खलु देवापिआ ! अम्हं सुमिणसत्थे बायालीसं सुमिरणा तीसं महासुमिरणा, बावन्तरिं सव्वसुमिरणा दिठ्ठा । तत्थ णं देवाणु - पिआ ! अरहंतमायरो वा, चक्कवट्टिमायरो बा, अरहंतंसि वा, चकहरंसि वा, गब्भं वक्कममाणंसि एएसि तीसाए महासुमिरणाएं इमे चउद्दस महासुमिये पासित्ता णं पडिबुज्भंति ॥ ७३ ॥
तं जहा - गय वसह सीह अभिसेअ दाम ससि दियरं भयं कुम्भं । पउमसर सागर विमाण भवण रयमुच्चयसिहिंच ॥ ७४ ॥
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