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(२४८) सयमेव अभिसमागम्म आयत जो गमाय सोहीए। अभिनिव्वुडे अमाइल्ले आवकहं भगवं समियासी ॥१६॥ एस विही अणुकन्तो माहणेण मईमया । बहुसो अपडिन्नेण भगवया एवं रीयन्ति ।। १७॥
-भगवान् निरोग होने पर भी अल्प भोजन करते थे। रोग न होने पर या होने पर वे भगवान् चिकित्सा की अभिलाषा नहीं करते थे ॥१॥
विरेचन, वमन, शरीर पर तेल मर्दन करना, स्नान करना, हाथ-पैर आदि दबवाना, और दाँत साफ करना आदि-पूर्ण शरीर को ही अशुचिमय जानकर -उन्हें नहीं कल्पता था ॥ २॥
वे महान् ! इन्द्रियों के धर्मो से-विषयों से-पराङ्गमुख थे, अल्पभाषी होकर विचरते थे। कभी भगवान् शिशिर ऋतु में छाया में ध्यान करते थे ।। ३॥
ग्रीष्म ऋतु में ताप के सामने उत्कट आदि आसन से बैठते, आतापना लेते, और रुक्ष (स्नेहरहित) चावल, बेर का चूर्ण ओर कुल्माष (नीरस) आहार से निर्वाह करते । चावल, बेर-चूर्ण और कुल्माष इन तीनों का ही सेवन करके, भगवान् ने आठ मास व्यतीत किये । कभी भगवान् पंद्रह-पंद्रह दिन और महीने-महीने तक जल भी नहीं पीते थे।। ____ कभी दो-दो महीने से अधिक छः-छः महीने तक पानी नहीं पीते हुए रात-दिन निरीह होकर विचरते थे। और, कभी-कभी पारणे के दिन नीरस आहार काम में लाते थे ॥ ६ ॥ वे कभी दो दिन के बाद खाते अथवा तीन-तीन दिन बाद, चार-चार
( पृष्ठ २४७ की पादटिप्परिण का शेषांश ) -आचारांगचुरिणः जिनदासगणिवर्य विहिता, (रतलाम) पत्र ३२४ ।
इससे स्पष्ट है कि, पूरे छद्मस्थ काल में भगवान महावीर को हस्तिग्राम में एक मुहूर्त रात्रि शेष रहने पर निद्रा आ गयी थी ( देखिये पृष्ठ १७१)
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