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(३०५) "प्रश्न पूछ सकते हो कि, गति के कारण यदि मुक्तात्मा भी सक्रिय हैं तो वह सिद्धालय से भी परे क्यों नहीं जाता। इसका उत्तर यह है कि वह सिद्धालय से परे नहीं जा सकता; क्योंकि वह धर्मस्तिकाय-जो गति को रोकनेवाला है-लोक में ही है, अलोक में नहीं। इसलिए सिद्धों की गति अलोक में नहीं होती।
'जिस तरह शुद्धपद का अर्थ होने से 'घट' का विपक्ष 'अघट' माना जाता है, उसी तरह लोक का भी विपक्ष अलोक माना जायेगा। तुम कहोगे कि 'अलोक'-पद से घट-पटादि का ग्रहण क्यों नहीं होता; क्योंकि वे भी तो लोक से भिन्न हैं। पर, तुम ऐसा नहीं कह सकते; क्योंकि अलोक पद में 'नञ्' प्रत्यय प्रसज्ज अर्थ में नहीं है, किन्तु पर्युदास है । अतः, उसका विपक्ष अर्थ भी अनुरूप ही लेना चाहिए। __ "लोक-परिच्छेद के कारण धर्माधर्म को मानना आवश्यक है अन्यथा आकाश को साधारण होने पर 'अयं लोकः', 'अयंचालोकः' यह लोक और अलोक का व्यवहार कैसे होगा। और, यदि लोक-विभाग न होगा तो प्रतिघात के अभाव से और अनवस्था होने से अलोक में भी गमन होने से जीव और पुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध नहीं होने से जीवों का बंध, मोक्ष, सुख, दुःख, भव, संसरण आदि व्यवहार नहीं होंगे। ___ "जिस तरह जल से ऊपर मछली की गति नहीं होती, उसी प्रकार गति में अनुग्रह करनेवालों के अभाव से जीव और पुद्गलों की, लोक के बाहर, अलोक में गति नहीं होती। गमन में जो अनुग्रह करनेवाला है, वह धर्मस्तिकाय लोक-परिणाम ही है ।
"जैसे ज्ञान ज्ञेय का परिमाणकारी (मापनेवाला) है; उसी प्रकार धर्मस्तिकाय लोक का परिमारणकारी है। लोक का परिमाणकारी तभी हो सकता है, जब कि अलोक का अस्तित्व माना जाये। __ " 'सिद्धों का स्थान' में जो षष्ठी विभक्ति है, वह कर्ता अर्थ में लेना चाहिए । अर्थात् 'सिद्ध कर्तृक स्थान' अर्थात् सिद्धों का रहना, ऐसा उसका
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