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तो केवल चर्चा सुनी जाती है । प्रत्यक्ष और अनुमान से भी न उपलब्ध होने वाले ( तिर्यक्, नर, अमर से सर्वथा भिन्न ) देवताओं से भिन्न नारकीय कैसे माने जायेंगे ?
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"नारकों को भी जीव आदि के समान मान लो । वे मुझे प्रत्यक्ष हैं । क्या ऐसी बात है कि, जो स्वयं को प्रत्यक्ष हो, वही है और जो दूसरों की प्रत्यक्ष हो, वह है ही नहीं ! जो चीज किसी एक को भी प्रत्यक्ष होती है, उसे सम्पूर्ण जगत प्रत्यक्ष मान लेता है । जैसे सिंह सब को प्रत्यक्ष न होने पर भी लोग उसे मान लेते हैं ।
"या इन्द्रियों द्वारा जो प्रत्यक्ष हो, क्या वही प्रत्यक्ष है ? उपचार मात्र से वह प्रत्यक्ष हैं । परन्तु तथ्य तो इन्द्रियातीत है ।
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" इन्द्रियाँ घट के समान मूर्त ( अचेतन ) हैं । अतः वे उपलब्धि (ज्ञान) के लिए अशक्य हैं । इन्द्रियाँ तो केवल उपलब्धि में द्वार हैं । और, ज्ञान करने वाला तो जीव है ।
" जैसे कि पाँच खिड़कियों से पाँच वस्तुओं को देखने वाला व्यक्ति पाँचों खिड़कियों से भिन्न माना जाता है, उसी प्रकार जीव इन्द्रियों से भिन्न है । इन्द्रियाँ जब कार्यरत नहीं होतीं, उस समय भी स्मरण से, जीव उपलब्ध कर सकता है । और, यदि जीव ही अन्यमनस्क हो, तो इन्द्रियों के कार्यरत रहने पर भी कुछ ग्रहण नहीं होता ।
"सभी आच्छादनों के नष्ट हो जाने पर, इन्द्रिय-रहित जीव, अधिक वस्तुओं को जानता है, जैसे कि घर से बाहर आया हुआ व्यक्ति घर में रहने वाले की अपेक्षा अधिक पदार्थों को देखता है |
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"जिस तरह कृतकत्व हेतु से, है, उसी तरह चक्षुरादि इंद्रिय के
वस्तु के केवल रूपादि एक धर्म मात्र का ज्ञान होता है ।
" पूर्वोपलब्ध सम्बन्ध के स्मरण से, जिस प्रकार धुएं के द्वारा अग्नि
केवल घट में अनित्यता की सिद्धि होती शक्ति विशेष रूप-धर्म से अनंत धर्म वाले
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