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(8) अचलभ्राता
अन्य लोगों के दीक्षा लेने की बात सुनकर, अचलभ्राता वन्दना करने के विचार से तीर्थंकर महावीर स्वामी के पास गये । भगवान् ने उन्हें भी नाम और गोत्र का उच्चारण करके सम्बोधित किया और कहा-"तुम्हें शंका है कि पाप और पुण्य है या नहीं। लेकिन तुम्हें वेदवाक्यों' का सही अर्थ ही ज्ञात नहीं है । इसलिए तुम्हें संशय हो रहा है ।
"पाप-पुण्य के सम्बन्ध में पांच मत हैं :
(१) 'पुण्यमेवैकमस्ति न पापम्'- केवल पुण्य ही है, पाप नाम की कोई वस्तु नहीं है।
(२) 'पापमेवैकमस्ति न तु पुण्यम्'-केवल पाप ही है, पुण्य नाम की कोई वस्तु नहीं है।
(३) उभयमप्यन्योन्यानुविद्धस्वरूपं मेचकमणिकल्पं संमिश्रसुखदुःखाख्यफलहेतुः साधारणं पुण्यापापाख्यमेकं वस्तु'-पुण्य-पाप नाम की एक वस्तु मेचकमणि की तरह परस्पर अनुविद्ध-स्वरूपवाली और मिश्रित सुख-दु:ख फल को देनेवाली है।
(४) 'स्वतंत्र उभयं' -पुण्य और पाप एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं। (५) 'मूलतः कमॆवनास्ति, स्वभावसिद्धः सर्वोऽव्ययं जगत्प्रपंचः' -मूल रूप में कर्म ही नहीं है । यह सब स्वभावतः होता है और यह सब पुण्य-पाप जगत के प्रपंच है। १–यहाँ टीकाकार निम्नलिखित वेदपद का उल्लेख किया है :
"पुरुष एवेदं ग्निं सर्वम्...."
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