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(३१०)
" देवताओं के अभाव में अग्निहोत्र दानादि स्वर्गीय फल निष्फल हो जायेंगे ।
"देवाभाव में 'यम- सोम-सूर्य-सुरगुरु-स्वाराज्यानि जयति' वेदवाक्य वृथा सिद्ध होंगें और मंत्र के द्वारा इन्द्रादि देवों का आह्वान व्यर्थ सिद्ध होगा । भगवान् के इन वचनों को सुनकर, जब मौर्य की शंका मिट गयी तो उन्होंने अपने ३५० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली ।
(=) अकम्पित
यह सुनकर कि मौर्यपुत्र आदि ने दीक्षा ले ली, आठवें गणधर अकम्पित भगवान् की वन्दना करने के विचार से भगवान् के पास आये । भगवान् ने उन्हें देखते ही, उनके नाम और गोत्र का उच्चारण करके उन्हें सम्बोधित किया और कहा कि- "तुम्हें शंका है कि नरक में रहने वाले लोग हैं या नहीं ? लेकिन, तुमने वेदमंत्रों का सही अर्थ नहीं समझा है । विरुद्ध वेद' पदों के सुनने से तुम्हें शंका हो गयी है ।
" तुम ऐसा मानते हो कि चन्द्रादि देव प्रत्यक्ष हैं और विद्यामंत्रादि द्वारा फल की सिद्धि करने वाले अन्य देव भी माने जा सकते हैं। पर, नारकों की १ – यहाँ टीकाकार ने दो पद किये हैं |
(अ) 'नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति ...' अर्थात् जो ब्राह्मण शूद्रान्न को खाता है, वह नारकीय होता है ।
( आ ) ' न ह वै प्रेत्या नारकाः सन्ति...' अर्थात् मर की कोई नारकी नहीं होते
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