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(३०४)
सौम्य ! लोकांत ही उसका स्थान माना जाता है । 'कर्मरहित होने से चेष्टा के अभाव में आत्मा का लोकांत में जाना असम्भव है ।' यह तुम नहीं कह सकते, क्योंकि कर्म के नष्ट होने पर आत्मा को— सिद्धत्व की तरह - अपूर्व गति परिणाम का लाभ हो जाता है ।
"तुम पूछोगे कि ( आकाश, काल आदि अमूर्त को निष्क्रिय मानते हैं तो फिर ) अमूर्त आत्मा को सक्रिय नहीं मान सकते ( और सक्रिय न मानने पर उसकी गति असिद्ध हो जायेगी ) तो इस पर मैं कहता हूँ - 'हे मंडिक ! तुम्हीं यह बतलाओ - क्या भूलोक में अरूप वस्तु चेतन देखने में आती है, जिससे मुक्तात्मा को चेतन मानते हो अर्थात् अमूर्त होने से आकाश की तरह आत्मा को भी अचेतन ही प्राप्त हो जायेगा । जैसे आत्मा को अमूर्तत्व से आकाशादि की समता होने पर भी चैतन्यरूप एक विशेष धर्म भी माना जाता है, उसी तरह क्रिया भी मानी जायेगी ।
"आत्मा सक्रिय माना जा सकता है, जैसे कि अपने कर्तृत्व और भोक्तृत्व के कारण कुम्भकार माना जाता है । वह यंत्र - पुरुष के समान सक्रिय है; क्योंकि उसके शरीर का परिस्पन्द होता है ।
"(तुम्हारा यह विचार हो सकता है कि ) आस्था के प्रयत्नों के फलस्वरूप देहस्पन्दन होता है; लेकिन अक्रिय आत्मा के साथ यह बात नहीं घटती है ( या यह माना जा सकता है कि आत्मा के मूर्तमान होने पर वह कार्माशरीर ही कहलायेगा दूसरा नहीं और उसके स्पन्दन का कुछ कारण मानना पड़ेगा । ) उसका भी दूसरा कारण, और उसका भी दूसरा कारण मानने से इस तरह अनवस्था हो जायेगी । चेतन वस्तु का, सम्भवतः प्रतिनियत प्रतिस्पन्दन ठीक नहीं ।
"तुम कहोगे कि 'जो कर्मरहित है, उसकी क्रिया कैसे होगी, इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जीव सिद्धत्व को प्राप्त करता है, उसी तरह कर्मगति के परिणाम से उनमें क्रिया भी होती है ।
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