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(३०३) .. "तुम कहोगे कि कार्य होने से कुंभ की तरह मोक्ष नित्य नहीं हो सकता है। यहाँ तुम्हारा हेतु व्यभिचरित है; क्योंकि कार्य होने पर भी प्रध्वंसाभाव सभी वादियों से नित्य माना जाता है, अन्यथा फिर से घट की उत्पत्ति हो जायेगी। तुम कहोगे कि आपका यह उदाहरण ठीक नहीं है, क्योंकि अभाव कोई वस्तु नहीं है । यह तुम्हारा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रध्वंसाभाव भी पूर्वकथित प्राग्भाव की तरह कुंभ विनाश-विशिष्ट पुद्गलमय भाव ही है।
"पुद्गल मात्र के विनाश होने से नियमतः
"अनपराध व्यक्ति के समान मुक्त (जीव) बंधन के कारणों के अभाव में, कभी बद्ध नहीं होता। (मन, वचन, काम के भोग आदि बंध के कारण. बताये जाते हैं ) शरीर आदि के अभाव में वे मुक्त के नहीं होते ।
"बिना बीज के अंकुर के समान उसका पुनर्जन्म नहीं होता; क्योंकि कर्म ही उसका बीज है । वह कर्ममुक्त को है ही नहीं। इसलिए पुनरावृत्ति के अभाव में वह मोक्ष नित्य है। ___ "ऐसा तुम ऐसा कहो कि, द्रव्यमूर्तत्व से वह आकाश के सामान सर्वगामी हो जायेगा, तो यह नहीं कह सकते; क्योंकि सर्वगतत्व का अनुमान से बाध हो जाएगा, (असर्वगत आत्मा कृत्वात् कुलालवत् )।
"मोक्ष के नित्य मानने का आग्रह ही क्या ? क्योंकि सभी वस्तुएँ उत्पत्ति, विनाश और स्थितिमय होती है। पर, केवल अन्य पर्याय से अनित्यादि व्यवहार होता है । ( जिस तरह 'घट' 'मृतपिण्ड' पर्याय से विनष्ट है, 'घट' पर्याय से उत्पन्न है और 'मिट्टी' पर्याय से स्थित है । ऐसी दशा में जब जो पर्याय प्रधानतया विवक्षित होता है, उससे अनित्यत्वादि व्यवहार होता है।
. "उसी तरह यह मुक्त भी 'संसार'-पर्याय से विनष्ट है और 'सिद्ध'-पर्याय से उत्पन्न और जीवत्व तथा उपयोग आदि पर्याय से स्थित होगा।'
"तुम पूछोगे कि समस्त कर्मरहित जीव का स्थान कौन-सा होगा। हे
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