________________
(२७३) के कारण बाह्य वस्तुओं से कर्म का उपचय-रूप बल देखा जाता है । अतः कर्म भी मूर्त होगा।
"आत्मादि से भिन्न होकर जो परिणामी होता है, वह मूर्त माना जाता है जैसे क्षीर । कर्म भी आत्मादि से भिन्न होता हुआ, परिणामी देखा जाता है अतः, वह भी मूर्त होगा। - "जिसका कार्य परिणामी होता है, वह स्वयं भी परिणामी होता है। जैसे दूध के कार्य दही के परिणामी होने के कारए दूध को भी परिणामी माना जाता है। उसी तरह कर्म के कार्यशरीर के परिणामी होने से उसका कारण कर्म भी परिणामी माना जायेगा।
"जिस प्रकार बिना कर्म की सहायता के बादलों में वैचित्र्य होता है, उसी प्रकार की स्थिति संसारी जीव के सम्बन्ध में भी है। यदि हम यह मान लें कि, दुःख-सुख बिना कर्म की सहायता से घटते रहते हैं, तो कोई हानि न होगी।
"इसका उत्तर यह है कि तो फिर कर्म के सम्बन्ध में क्या भेद आने वाला है ? जैसे बाह्य पदार्थों का वैचित्र्य सिद्ध है, उसी प्रकार कर्मपुद्गलों का भी वैचित्र्य सिद्ध किया जा सकता है । ___ "यदि वाह्य वस्तुओं की चित्रता सिद्ध हो गयी, यह तुमको स्वीकार है तो शिल्पिन्यस्त रचनाओं की तरह जीवानुगत कर्म का भी वैचित्र्य और भी अधिक स्पष्ट रूप में सिद्ध है। ___ “यदि अभ्रादि-विकार स्वभावतः वैचित्र्य को धारण करते हैं, तो कर्म को माना ही क्यों जाये', इस प्रकार का विचार ठीक नहीं है। कर्म भी स्वतः एक शरीर ही है, उसे 'कार्मण्य-शरीर' कहते हैं । अतीन्द्रिय होने से वह सूक्ष्मतर है और जीव के साथ अत्यन्त संस्लिष्ट होने से अभ्यन्तर है । तब तो जिस प्रकार अभ्रविकारादि वाह्य तनु में तुम वैचित्र्य मानते हो, उसी तरह कर्मशरीर में भी विचित्रता मानने में क्या हानि है ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org