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(२६६) होंगे। या तो कर्म का ही अभाव होगा। कर्म के अभाव में दूसरा भवान्तर कहाँ रह जायेगा । और, उसके अभाव में सदृश्यता कहाँ रह जायेगी । और, यदि यह मान लिया जाये कि वह भव निष्कारण है तो उसका नाश भी उसी प्रकार निष्कारण होगा।
"तुम्हारा यह कहना है कि कर्म का अभाव मानने में भी क्या दोष हैं; क्योंकि सब कुछ कारण के अनुरूप घटादि कार्य होते हैं ।
"पर, मैं कहता हूँ कि क्या वह स्वभाव निश्चित वस्तु है ? अथवा कारण भावरूप है ? अथवा वस्तु-धर्म है ?
"यदि उसे वस्तु मान लें, तो उसकी अनुपलब्धि होने से आकाशकुसुम के समान वह वस्तु नहीं मानी जा सकती। और, यदि अनुपलब्ध होने के बावजूद वह 'है', तो कर्म को क्यों न 'है' माना जाये । उसके स्वीकार करने में तुम जो कारण समझते हो, वह कारण कर्म के साथ भी लागू होगा। यदि कहें कि कर्म का ही नाम स्वाभाव है, तो इसमें क्या दोष होगा ? उसे स्वाभाव के नित्य समान रहने में क्या कारण है ?
"वह स्वभाव मूर्त है अथवा अमूर्त ? यदि मूर्त है तो वह परिणामी होने से दूध की तरह सर्वथा समान नहीं होगा । और, यदि अमूर्त है, तो उपकरण के अभाव में शरीर का कारण नहीं होगा । अतः हे सुधर्मा ! इस कारण से भी शरीर अमूर्त नहीं माना जा सकता; क्योंकि उसके कार्य-शरीर आदि मूर्त होते हैं । अमूर्त से मूर्त कार्य उत्पन्न नहीं होता। और, सुख-दुःखादि का ज्ञान होने से वह स्वभाव अमूर्त नहीं हो सकता।
“यदि (भवान्तर) स्वभाव से उत्पन्न होता है और स्वाभाव अकारण होता है, तो सादृश्यता नहीं हो सकती है। और, बिना कारए के निःसहश्ता क्यों नहीं होती? या विनाश क्यों नहीं हो जाता ?
वस्तु का अर्थ स्वाभाव है' यदि ऐसा माना जाये तो वह स्वाभाव भी सदा सदृश नहीं माना जा सकता। क्योंकि, वस्तु के उत्पाद, स्थिति और भंग पर्याय विचित्र होते हैं।
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