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( ५ )
सुधर्मा
व्यक्त तथा अन्य लोगों के दीक्षा लेने की बात सुनकर सुधर्भा ने भगवान् के सम्मुख जाकर वंदन करने का विचार किया। जब सुधर्मा भगवान् के पास आये तो तीर्थंकर ने उनका नाम और उनके गोत्र का नाम लेकर उन्हें सम्बोधित किया और कहा - "तुम्हारा विश्वास हैं कि इस भव में जो जैसा है, पर भव में भी वह भी वैसा ही होता है । लेकिन तुम वेद- पदों का सही अर्थ नहीं जानते ।
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"तुम्हारा यह विचार है कि जैसे अंकुर बीज के अनुरूप होता है । वैसे ही कार्य भी कारण के अनुरूप होता है । इस आधार पर तुम यह मानते हो कि परभव में भी वस्तुएँ इस भव के अनुरूप ही होती हैं। पर, तुम्हारा यह मानना ठीक नहीं है ।
(१) इस पर टीका करते हुए टीकाकार ने निम्नलिखित वेदवाक्य उद्धृत किया है ।
१ – पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते पाशवः पशुत्वम्' २ - शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते
इनमें प्रथम का अर्थ तुम यह मानते हो कि पुरुष मर कर पर भव में पुरुषत्व को ही प्राप्त करता है और पशु मर कर पशुत्व को प्राप्त करते हैं । ( इससे पूर्वभव के समान ही दूसरा भव सिद्ध होता है )
और दूसरे का जो पुरीष- सहित जलाया जाता है, वह श्रृंगाल-योनि में जन्म लेता है । ( इससे यह स्पष्ट होता है कि दूसरा भव पहले भव से विलकुल भिन्न होता है )
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