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(२६५) "शृंग से शर नाम की वनस्पति उत्पन्न होती है। और, उस शृंग में यदि सर्षप का लेप कर दिया जाये, तो भूतृण (सस्य-समुदाय) उत्पन्न होता है और गोलोम तथा अविलोम के संयोग से दूर्वा उत्पन्न होती है । इस प्रकार नाना प्रकार के द्रव्यों के मिश्रण के संयोग से नाना प्रकार की वनस्पतियों की उत्पत्ति का वर्णन वृक्षायुर्वेद और योनिविधान में है। इसलिए, हे सुधर्मा ! यह कोई नियम नहीं है कि जिस प्रकार का कारण होता है, उसी प्रकार कार्य होता है।
"बीज के अनुरूप जन्म मानों, तब भी एक भव से भवान्तर में (जाति, कुल, बल, ऐश्वर्य, रूप आदि) विभिन्न परिणाम वाले जीव को स्वीकार करना पड़ेगा। भव-रूपी अंकुर को उत्पन्न करने वाला बीज-रूपी कर्म विचित्र है । इसलिए कारण की विचित्रता से भवांकुर में भी वैचित्र होगा। अतः, हे सौम्य ! यदि तुमने कर्म को स्वीकार किया और हेतु की विचित्रता होने से उसे विचित्र भी माना, तो ऐसा भी मानों कि उससे उत्पादित उसका फल भी विचित्र होगा।
"और. विचित्र कार्यों के फलरूप होने से यह संसार भी विचित्र है। लोक में जिस तरह भिन्न-भिन्न कार्यों का फल भिन्न-भिन्न होता है, उसी तरह यहाँ इस लोक में किये गये भिन्न-भिन्न कर्मों का फल परलोक भिन्न-भिन्न होगा। बाह्य (अभ्रादि विकार की तरह) पुद्गल-परिणाम होने के फलस्वरूप कार्यों का परिणाम विचित्र होता है और कर्म के कारणों में वैचित्र्य होने से कर्म भी विचित्र होते हैं। __ "इस भव के समान ही परलोक भी है, इतना यदि तुम मानते हो तो तुम्हें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि कर्मफल भी दूसरे भव में इसी भव के समान ही होगा। इस लोक में नानागति कर्म करने वाले मनुष्य यदि उसका फल भोगते हैं तो दूसरे भव में भी उन्हें उसका फल भोगना पड़ेगा।
“(यदि विरोधी कहे) कर्म इसी लोक में फलसहित है, परलोक में नहीं तब सर्वथा सादृश्य नहीं होगा। अकृतकर्म फल देगा और कृत कर्म निष्फल
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