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(२८७) "घट-सत्ता घट का धर्म है । इसलिए, वह (घट-सत्ता) उससे अभिन्न है। पर, वह पट आदि से भिन्न है । अतः जब कहा जाता है कि 'घट है', तो इससे यह निष्कर्ष कैसे निकाला जा सकता है कि 'और कुछ है ही नहीं'; क्योंकि अपनी सत्ता तो पटादि में भी है ही।
"यह कहने से कि 'घट है', यह अर्थ कहाँ निकलता है कि जो कुछ है, सब घट ही है । या यह कहने से कि 'घट है', यह अर्थ कैसे हो सकता है कि
और कुछ है ही नहीं। ___'वृक्ष' शब्द से हम 'आम का वृक्ष' अथवा आम से भिन्न 'नीम आदि किसी का वृक्ष' अर्थ लेते हैं। लेकिन, जब हम ‘आम का वृक्ष' कहते हैं तो आम के वृक्ष के अतिरिक्त और किसी वृक्ष का ज्ञान नहीं होता । इसी प्रकार जब हम कहते हैं कि 'है', तो उससे भाव यह होता है कि घट अथवा घट से भिन्न कोई वस्तु है; लेकिन इसमें 'घट' जोड़कर 'घट है', ऐसा कहने से, केवल घट का ही अस्तित्व सिद्ध होता है ।
"यदि ऐसा माना जाये कि न तो 'जात', न 'अजात', और न जाताजात' उत्पन्न किया जा सकता है, तो प्रश्न है कि 'जात' की जो बुद्धि होती है, वह कैसे होगी? यदि 'जात' जात (उत्पन्न हुआ) नहीं है, तो यह विचार खपुष्प के साथ क्यों नहीं लागू किया जाता।
"यदि सर्वदा जात नहीं है, तो जन्म के बाद उसकी उपलब्धि क्यों होती है। उसकी उपलब्धि पूर्व में क्यों नहीं होती अथवा भविष्य में उसके नष्ट होने के बाद क्यों नहीं होती।
'शून्यता' चाहे वह जात न हो, जात मान ली जाती है, उसी प्रकार अन्य वस्तुओं को भी हम जात मान ले सकते हैं। और, यदि जात को ही जात नहीं मानें तो फिर शून्यता कैसे प्रकाशित होगी। शून्यता का अस्तित्व कैसे सिद्ध होगा।
'जात', 'अजात', 'जाताजात' और 'जायमान' अपेक्षा से उत्पन्न होते हैं। कोई वस्तु सर्वथा उत्पन्न नहीं होती। 'कुम्भ' 'जात' इसलिए होता है
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