________________
(२८५)
"ऐसी स्थिति में स्थिरता, द्रवता, उष्णता, चलन, अरुचित्व तथा शब्द आदि ग्राह्य कैसे होते हैं, और कान आदि ग्राहक कैसे होंगे । समता, विप
य सर्वाग्रहण आदि शून्य की स्थिति में क्यों नहीं माने जाते ? और, यह समीचीन ज्ञान है अथवा मिथ्या ज्ञान है ? 'स्व', 'पर' और 'उभय' - बुद्धि कैसे होगी ? उनकी परस्पर असिद्धि कैसे हो सकती है । और, यदि इन सब का कारण दूसरे की बुद्धि है तो 'स्व' बुद्धि, 'पर' - बुद्धि का अंतर क्या है ? 'स्व'भाव और 'पर'-भाव मानने पर सर्वशून्यता की हानि हो जायगी ।
"तुम्हारा दीर्घ ह्रस्व सम्बन्धी विज्ञान युगपत है और क्रमश: हैं । यदि युगपत है तो परस्पर अपेक्षा क्या है ? यदि क्रम से, तो पूर्व में पर की क्या अपेक्षा ? बच्चे को जो प्रथम विज्ञान होता है, उसमें किसकी अपेक्षा है । जिस तरह दोनों नेत्रों में परस्पर अपेक्षा नहीं होती, उसी तरह तुल्य दो ज्ञानों में भी अपेक्षा नहीं हो सकती ।
दीर्घ की
" ह्रस्व की अपेक्षा करके जो दीर्घज्ञान होता है, सो क्यों ? अपेक्षा करके ही दीर्घज्ञान क्यों नहीं होता । असत्व तो दोनों में समान ही है । ख - पुष्प से दीर्घ और ह्रस्व का ज्ञान क्यों न हों अथवा असत्व की समानता से ख- पुष्प से ख- पुष्प रूप ही ह्रस्व-दीर्घ ज्ञानादि व्यवहार क्यों न न हो। ऐसा नहीं होता । इसलिए पदार्थ हैं ही - जगत की शून्यता असत है ।
“यदि संसार में सर्वाभाव ही है तो ह्रस्व आदि को दीर्घादि की अपेक्षा क्यों ? यह अपेक्षा की स्थिति ही शून्यता के प्रतिकूल है । जैसे, घटादि अर्थ की सत्ता । यदि तुम ऐसा कहो कि, स्वभाव से अपेक्षा से ही हस्व-दीर्घ व्यवहार होता है, तो स्व-पर भाव का स्वीकार होने से, शून्यता की हानि हुई । बंध्यापुत्र की तरह पदार्थों के स्वभाव का प्रश्न ही कहाँ उठता है ।
"अपेक्षा से विज्ञान, अभिधान हो सकता है - जैसे कि दीर्घ ह्रस्व | अन्य की अपेक्षा करके वस्तुओं में सत्ता और आपेक्षिक ह्रस्व-दीर्घत्व आदि धर्मों से रूप-रसादि सिद्ध नहीं होते ।
"यदि घटादि की सत्ता भी अन्य की अपेक्षा से हो, तो ह्रस्वाभाव में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org