Book Title: Tirthankar Mahavira Part 1
Author(s): Vijayendrasuri
Publisher: Kashinath Sarak Mumbai

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Page 343
________________ (२८०) यदि ऐसा कहें कि, पूर्व-पूर्व विज्ञान-क्षणों से उत्तरोत्तर विज्ञान-क्षणों की एक ऐसी वासना उत्पन्न होती है, जिससे अन्य विज्ञान उनके विषयों का सत्व क्षणिकता आदि और क्षणिक विज्ञान का भी ज्ञान होता है। इसलिए, वादी का सर्वक्षएिकता ज्ञान विरुद्ध नहीं हो सकता। इसका उत्तर यह हैं-"यह वासना भी वासनावाला और वासनीय इन दोनों के मिलकर विद्यमान रहने पर ही हो सकता है-जन्मान्तर लेने के बाद विनष्ट होने पर नहीं। यदि वास्य-वासक इन दोनों को संयोग माने तो क्षणिकता असिद्ध हो जायेगी। और, वह वासना क्षणिक मानी जायेगी या अक्षणिक ? यदि क्षणिक मानेंगे तो सर्वक्षणिकता विज्ञान कैसा होगा ? क्योंकि, वह स्वयं क्षणिक है, वह सभी में क्षरिणकता का ज्ञान नहीं कर सकता। और, यदि उसे अक्षणिक मानें तो प्रतिज्ञा-हानि होगी। विज्ञान को यदि क्षणिक मानें तो निम्नलिखित दोष उत्पन्न होंगे--- (१) क्षणनश्वर विज्ञानवादी को तीनों लोक में रहने वाले सभी पदार्थों के ज्ञान के लिए एक क्षण में बहुत ज्ञानों का उत्पाद कराना होगा और उन ज्ञानों के आधारभूत रूप में आत्मा स्वीकार करनी पड़ेगी। अन्यथा 'यत् सत् तत् सर्व क्षणिक', 'क्षणिकाः सर्व संस्काराः' “निरात्मानः सर्वे भावाः" आदि सर्वक्षणिकता विज्ञान उपलब्ध नहीं होगा। और, उस आत्मा के स्वीकार करने पर अपना मत त्याग करना हो जायेगा।। (२) अथवा क्षणिक-विज्ञानवादी को एक विज्ञान के एक काल में समस्त वस्तु ग्राहकता माननी पड़ेगी, जिससे उसका सर्वक्षणिकता विज्ञान उत्पन्न हो । लेकिन, वह न तो इष्ट है और न दृष्ट है। (३) अथवा विज्ञान का अनंतकाल स्थायित्व स्वीकार करना पड़ेगा, जिससे वह विज्ञान तद्-तद् वस्तु को देखता हुआ सर्वक्षणिकता को जानेगा। ऐसा मानने पर विज्ञान संज्ञामात्र विशिष्ट आत्मा ही स्वीकृत होती है। कार्य और कारण को आश्रय करके कार्यप्रवृत्ति होती है। पर, ऐसा नहीं होगा; क्योंकि कारण कार्यवस्था में रह ही नहीं सकता है। इस तरह समस्त व्यवहार नष्ट हो जाएँगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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