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(४)
व्यक्त
यह सुनकर कि वायुभूति और उसके साथियों ने दीक्षा ले ली, व्यक्त नामक चौथे पंडित तीर्थंकर के पास उनके प्रति सम्मान प्रकट करने के विचार से गये । भगवान् ने उन्हें देखते ही उनका नाम और गोत्र लेकर उन्हें सम्बोधित किया और कहा
"व्यक्त, तुम्हें शंका है कि भूत ( पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश ) हैं या नहीं । इसका कारण यह है कि तुम वेदवाक्यों' का यह अर्थ करते हो कि यह पूरा विश्व स्वप्न अथवा भ्रम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । एक ओर जहाँ वेदों में पंचतत्वों की स्थिति का विरोध है, वहीं 'द्यावा पृथ्वी....' और 'पृथ्वी देवता आपो देवता...' आदि वाक्यों में इन तत्त्वों का होना भी स्वीकार किया गया है । वेदों के इन विरोधाभासों से ही तुम्हारे मन में शंका उत्पन्न हो गयी है ।
" जब तुम्हें स्वतः भूतों के ही संबंध में शंका है, तो जीव- सरीखी वस्तु का क्या कहना है । सभी वस्तुओं में सशंक होने के कारण तुम इस सम्पूर्ण जगत को माया के रूप में मानते हो ।
" जैसे ह्रस्व और दीर्घ की सिद्धि स्वतः परतः, उभयतः और अन्यतः १ - टीकाकार ने संदर्भ के वेदवाक्यों का उल्लेख करते हुए निम्नलिखित पद दिये हैं:
(अ) स्वप्नोपमं वै सकलमित्येष ब्रह्मविधि रञ्जसा विज्ञेयः । (आ) द्यावा पृथिवी ...
(इ) पृथिवी देवता आपो देवता...
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