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(२७१) "जिस प्रकार अंकुर का हेतु बीज है, उसी प्रकार सुख-दुःख के लिए भी हेतु की आवश्यकता है । उनका हेतु कर्म ही है। तुम्हारा यह मत कि, वह कारण दृष्ट ही हो सकता है, ठीक नहीं है। साधन-सामग्री समान होने पर भी, फल में जो विशेष अंतर दृष्टिगत होता है, उसके लिए कोई कारण अपेक्षित है । वह कारण कर्म को ही मानना चाहिए।
"जिस प्रकार यौवन के शरीर से पूर्व बचपन का शरीर होता है, उसी प्रकार बचपन के शरीर से पूर्व एक अन्य शरीर होता है। और, बचपन के शरीर के पूर्व का शरीर वस्तुतः 'कर्म' है । उसे 'कार्मण-शरीर' कहते हैं।
"जिस प्रकार कृषि का फल सस्योत्पादन है, उसी प्रकार क्रिया के फल दानादि का भी दृष्ट फल-होना चाहिए वह फल मनः-प्रसाद है। अदृष्ट कर्म-रूप फल पाने की आवश्यकता नहीं।
"और, प्रश्न किया जा सकता है कि, मन:-प्रसाद भी तो स्वयं क्रियारूप ही है । अतः उसका भी फल होना ही चाहिए। उसका जो फल है, वह कर्म है। उसी के परिणाम स्वरूप बारम्बार सुख-दुःखादि फल उत्पन्न होते हैं।
यदि तुम्हारा यह विचार है कि दानादि क्रिया मनोवृत्ति का फल है, तो ऐसा तुम्हारा मानना ठीक नहीं है । दानादि-क्रिया मनोवृत्ति का निमित्त (कारण) है । यह बात ठीक वैसी ही है, जैसे कि मिट्टी का पिंड घट का निमित्त है। ___"इस प्रकार भी स्पष्ट है कि, क्रिया का फल दृष्ट ही होता है। उसका फल 'कर्म' नहीं हुआ। क्रिया का फल ठीक उसी रूप में दृष्ट होता है, जैसे पशु-विनाश का फल दृष्ट मांस ही माना जाता है-अदृष्ट अधर्मादि नहीं। जीव-लोक प्रायः ऐसे ही फल में लगता है, जिसका फल दृष्ट होता है। जीवलोक का असंख्य भाग ही अदृष्ट फल वाली क्रिया में प्रवृत्त होता है।
"हे सौम्य ! जीव दृष्ट फल वाली क्रियाओं में ही प्रायः प्रवृत्त होते हैं । इसी कारण क्रिया को आप अदृष्ट फल वाली मानें ।
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