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(२६६) . "जिस तरह सभी पिंडों (देह) में आकाश एक माना जाता है, उसी तरह सभी देहों में आत्मा को एक मानने में क्या दोष है ? हे गौतम ! जिस तरह सभी पिंडों में एक रूप ही आकाश होता है, उसी तरह सभी देहों में आत्मा एक रूप नहीं होता है; क्योंकि पिंड में आत्मा भिन्न-भिन्न ही देखा जाता है। . संसार में लक्षण के भेद होने से जीव नाना रूप होते हैं-कुम्भादि की तरह ! जो भिन्न नहीं होता है, उसका लक्षए भी भिन्न नहीं होता है है, जैसे आकाश । आत्मा के एक होने से सुख-दुःख बंध और मोक्षाभाव सब को होंगे । अत: जीव भिन्न ही हैं। . "जिससे कि जीव का उपयोग लक्षण है और उसका वह उपयोग उत्कर्षअपकर्ष भेद से भिन्न होता है । अतः, उपयोग के अनन्त होने से जीव को भी अनन्त मानना चाहिए। ... "जीव को एक मानने पर सर्वगतत्व (व्यापक) होने से-आकाश की तरह-सुख-दुःख, बंध-मोक्ष आदि नहीं हो सकते हैं। और, आकाश की तरह
[ पृष्ठ २६५ की पादटिप्परिण का शेषांश ] एक एव हि भूतात्मा भूते भूते प्रतिष्ठितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥ यथा विशुद्धमाकाशं तिमिरोपप्लुतो जनः । सङकीर्णमिव मात्राभिमिन्नाभिरभिमन्यते ॥२॥ तथेद मंगलं ब्रह्म निर्विकल्पम विद्यया। कलुषत्वमिवापन्नं भेदरूपं प्रकाशते ॥३॥ ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दासि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥४॥
तथा “पुरुष एवेदंग्नि सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम् , उतामृतत्व
स्येशानः यदन्नेनातिरोहति, यदेजति । यद् नैजति, यद् दूरे, यदु अन्तिके, यदन्तरस्य सर्वस्य, यत् सर्वस्यास्य बाप्ततः" इत्यादि ।
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