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उन्हीं भाइयों के समान ख्याति वाले व्यक्त और सुधर्मा नामक दो विद्वान कोल्लाग - सन्निवेश के रहने वाले थे । उनको भी पाँच-पाँच सौ शिष्य थे । व्यक्त का गोत्र भारद्वाज था और सुधर्मा का अग्नि वैश्यायन । व्यक्त को पंचभूतों के सम्बन्ध में और सुधर्मा को 'जैसा है, वैसा ही होता है' के सम्बन्ध में शंका थी ।
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उसी सभा में मंडिक और मौर्यपुत्र नामक दो विद्वान मौर्यसन्निवेश से आये थे । मंडिक वासिष्ठ गोत्र के थे और मौर्य काश्यप गोत्र के थे । मंडिक को बंधमोक्ष और मौर्य को देवों के सम्बन्ध में शंका थी । इन दोनों विद्वानों को ३५० शिष्य थे ।
उस यज्ञ में भाग लेने के लिए अकम्पित, अचल भ्राता, मेतार्य और प्रभास नाम के चार अन्य विद्वान भी आये थे । उनमें से हर का शिष्य-परिवार ३०० शिष्यों का था । अकम्पित को नारकी के सम्बन्ध में, अचलभ्राता को पुण्य के सम्बन्ध में, मेतार्य को परलोक के सम्बन्ध में और प्रभास को आत्मा की मुक्ति के सम्बन्ध में शंका थी । अकम्पित मिथिला के थे और उनका गोत्र गौतम था । अचलभ्राता कोशल के थे, उनका गोत्र हारित था । मेतार्य कौशाम्बी के निकट स्थित तुंगिक के थे । उनका गोत्र कौंडिन्य था । और, प्रभास राजगृह के थे । उनका भी गोत्र कौंडिन्य था ।
इस प्रकार उस वृहत् आयोजन में आये ग्यारहों विद्वानों को एक-एक विषय में सन्देह था । पर, अपनी मर्यादा को ध्यान में रखकर वे अपनी शंका किसी से प्रकट नहीं करते थे ।
पावापुरी के जिस उद्यान में भगवान् का समवसरण हुआ, वहाँ जाने के लिए लोगों में होड़-सी लग गयी थी । वृहत् मानव-समुदाय को ही कौन कहे, देवगरण भी उधर जा रहे थे । उसी समय भगवान् का द्वितीय समवसरण में ने कहाहुआ । उस समवसरण प्रभु
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"यह अपार संसार सागर दारुा है । जिस प्रकार वृक्ष का काररण बीज है, उसी प्रकार इसका कारण कर्म है । जिस प्रकार कुआँ खोदनेवाला व्यक्ति
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