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(२६१) शंका भी उचित ही है। अतः तुम ऐसा मानते हो कि जीव सर्व-प्रमाणों के विषय से परे हैं।
"परन्तु, हे गौतम जीव निश्चित रूप से तुम्हें भी प्रत्यक्ष है, जिससे कि तुमको संशय हो रहा है । जिस तरह अपने शरीर के सुख-दुःख के लिए प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है, उसी प्रकार जो प्रत्यक्ष है, उसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है । ___'मैंने किया है', 'मैं कर रहा हूँ', और 'मैं करूँगा', में जो 'मैं' ('अहम्'प्रत्यय ) है, उससे भी आत्मा सिद्ध है। भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों के कार्य-व्यवहार से आत्मा प्रत्यक्ष है । _ "जब आत्मा ही नहीं है, तो फिर 'अहम्' को तुम कैसे स्वीकार कर सकते हो। मैं हूँ या नहीं, इस प्रश्न पर फिर शंका कैसी? और, यदि इतने पर भी शंका है, तो फिर 'अहम्' प्रत्यय किसके साथ लागू होगा। .
"जब संशय करने वाला ही नहीं है तो फिर 'किम् अस्मि नास्मि' (मैं हूँ या नहीं) की शंका होगी किसको ? हे गौतम ! जब तुमको अपने स्वरूप के विषय में ही शंका है तो फिर कौन-सी वस्तु शंकाहीन हो सकती है। "आत्मा 'गुणिन्' (गुणवान्) भी है । गुण के प्रत्यक्ष होने से वह भी
(पृष्ठ २६० की पाद-टिप्पणी का शेषांश ) (इ) सुगत का वचन है :
"न रूपं भिक्षवः पुदगलः (ई) वेद में आता है :
(i) "न ह बै सशरीस्य प्रियाऽअप्रिय योरप हतिरस्ति अशरीर वा वसन्ते प्रियाप्रिये न स्पष्यतः।" (ii) अग्निहोत्रं जुहुयात स्वर्गकामः" (उ) कपिल के आगम में आता है
“अस्ति पुरुषोंऽकर्ता निर्गुणों भोक्ता चिद्र प"
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