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(२४९) दिन बाद, कभी पाँच-पाँच दिन बाद निरासक्त होकर शरीर-समाधि का विचार कर आहार करते थे ॥ ७ ॥
हेय-उपादेय को जानकर उन महावीर ने स्वयं पापकर्म नहीं किया। अन्य से नहीं कराया और करते हुए का अनुमोदन नहीं किया ॥ ८ ॥
ग्राम अथवा नगर में प्रवेश करके, दूसरों के लिए बनाये हुए आहार की गवेषणा करते । निर्दोष आहार प्राप्त कर भगवान् मन-वचन-काया को संयत करके सेवन करते थे ॥ ६ ॥
अगर भूख से व्याकुल कौए, अन्य पानाभिलाषी प्राणी जो आहार की अभिलाषा में बैठे हैं और सतत भूमि पर पड़े हुए देख कर अथवा ब्राह्मण को, श्रमण को,' भिखारी को, अतिथि को, चाण्डाल को, बिल्ली को, और कुत्ते को सामने स्थित देख कर, उनकी वृत्ति में अंतराय न डालते हुए उनकी अप्रीति के कारण को छोड़ते हुए उनको थोड़ा भी त्रास न देते हुए भगवान मंद-मंद चलते और आहार की गवेषणा करते । १०-११-१६ ॥
मिला हुआ आहार चाहे आर्द्र हो अथवा सूखा हो, चाहे ठंडा हो, चाहे पुराने कुम्मास (राजमाष) हों, अथवा मूंग इत्यादि का छिलका हो, चना बोल आदि का असार भाग हो, आहार के मिलने पर और न मिलने पर भगवान समभाव रखते थे ॥ १३ ॥
वह महावीर भगवान् उत्कट गोदोहिकादि आसन से स्थित होकर स्थिर या निर्विकार होकर अंतःकरण की शुद्धता का विचार कर, कामनारहित होकर ध्यान ध्याते थे, ध्यान में उर्ध्वलोक अधोलोक और तिर्यक-लोक के स्वरूप का विचार करते थे ।। १४ ॥
कषायरहित, आसक्ति-रहित शब्द और रूप में आसक्त न होकर, ध्यान करते थे । छद्मस्थ होते हुए भी, उन्होंने संयम में पराक्रम करते हुए एक बार भी प्रमाद नहीं किया ॥ १५ ॥ १-श्रमणं पाँच के नाम बताये गये हैं :निग्गंथ १ सक्क २ तापस ३ गेरुय ४ आजीव ५ पंचहा समणा ।
-प्रवचन सारोद्धार सटीक, पूर्वार्द्ध पत्र २१२-२
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