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उपसर्ग टालने के लिए प्रभु की मौसी के पुत्र सिद्धार्थ नामक व्यन्तर देव को प्रभु की सेवा में छोड़ दिया ।
दूसरे दिन भगवान् ने कर्मारग्राम से विहार किया और कोल्लागसन्निवेश ' आये । और, वहाँ बहुल नाम के ब्राह्मण के घर घी और शक्कर से मिश्रित परमान्न (खीर) से भगवान् के छठ्ठ के तप का पारणा किया । 'आवश्यकचूरिंग' पत्र २७० में इस प्रसंग का पाठ “ कोल्लाए संनिवेसे घतमधुसंजुत्तेनं परमन्नेणं... पडिलाभितो" आता है ।
जैन साधु के लिए मधु (शहद) का प्रयोग निषिद्ध है । इस परम्परा से अनभिज्ञ लोग प्राय: यहाँ प्रयुक्त 'मधु' शब्द का गलत 'शहद- परक' अर्थ ले १ कोल्लाग - सन्निवेश दो ही थे । एक वैशाली के पास दूसरा राजगृही के पास । तीसरा कोई कोल्लाग नहीं था । जो लोग लछवाड़ के पास तीसरे कोल्लाग की कल्पना करते हैं, वे अपनी भूगोल-सम्बन्धी अज्ञानता प्रकट करते हैं । विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखिये 'वैशाली' (हिन्दी) पृष्ठ ८० ।
डाक्टर हार्नेल वैशाली वाले कोल्लाग को वैशाली का एक मुहल्ला मानते हैं ( 'महावीर तीर्थङ्कर की जन्मभूमि' जैन - साहित्य- संशोधक खंड १, अंक ४, पृष्ठ २१९ ) पर यह उनकी भूल है । विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखिए, वैशाली (हिन्दी) पृष्ठ ५१, तथा पृष्ठ ५७ ।
यह स्थान बसाढ़ से उत्तर पश्चिम में दो मील की दूरी पर है । इसी का आधुनिक नाम कोल्हुआ है । देखीये 'वीर-विहार-मीमांसा' हिन्दी पृष्ठ २३ ।
( पृष्ठ १६४ की पादटिप्परिण का शेषांश )
यह बात वास्तव में सब आत्माओं से सम्बन्ध रखती है । कोई भी आत्मा जब तक अपने पराक्रम को प्रकट नहीं करता, स्वयं किसी भी तरह का पुरुषार्थ प्रकट नहीं करता, तब तक उसको सिद्धि नहीं प्राप्त होती । कार्य सिद्धि सदा से स्वपराक्रम में रही है । और, पराक्रमी पुरुष ही सिद्धि को प्राप्त करते हैं । पर आश्रय पर निर्भर रहनेवाला कभी स्वतंत्र नहीं बन सकेगा ।
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