________________
(२३१) "हे गौतम, उस काल में, उस समय में, मैं छद्मस्थ अवस्था में था और मुझे दीक्षा लिये ११ वर्ष बीत चुके थे। मैं निरन्तर छठ्ठ-छठ्ठ के तप कर्मपूर्वक तथा संयम और तपश्चर्यापूर्वक आत्म-भावना-युक्त अनुक्रम से, विहार
( पृष्ठ २३० की पादटिप्परिण का शेषांश ) वातकुमारेन्द्र हैं तथा दशम भवनपति के-१९धोष और २० महाघोष स्तनितकुमारेन्द्र हैं। व्यन्तर के निम्नलिखित इन्द्र हैं :-१ काल और २ महाकाल पिचाचेन्द्र हैं। ३ सुरूप और ४ प्रतिरूप भूतेन्द्र हैं। ५ पूर्णभद्र और ६ मणिभद्र यक्षेन्द्र है । ७ भीम और ८ महाभीम राक्षसेन्द्र हैं। ६ किन्नर
और १० किंपुरुष किन्नरेन्द्र हैं। ११ सत्पुरुष और १२ महापुरुष किंपुरुषेन्द्र हैं। १३ अतिकाय और १४ महाकाय महोरगेन्द्र है । १५ गीतरति और १६ गीतयश गन्धर्वेन्द्र हैं। व्यन्तर विशेष-१ सन्निहित और २ सामान्य अणपण्णेन्द्र है । ३ घात और ४ विहात पणपण्णेन्द्र हैं। ५ ऋषि और ६ ऋषिपालक ऋषिवादीन्द्र हैं । ७ ईश्वर और ८ महेश्वर भूतवातीन्द्र हैं । ६ सुवत्स और १० विशाल क्रन्दितेन्द्र हैं । ११ हास्य और १२ हास्यरति महाकन्दितेन्द्र हैं। १३ श्वेत और १४ महाश्वेत कुंभाडेन्द्र हैं। १५ पतय और १६ पतयपति पतयेन्द्र हैं। ज्योतिष्क-१ चन्द्र और २ सूर्य ये दो ज्योतिष्केन्द्र हैं। वैमानिक-सौधर्म देवलोक के इन्द्र–१ शक्र । ईशान देवलोक के२ ईशानेन्द्र, सनत्कुमार देवलोक के-३ सनत्कुमार है, माहेन्द्र देवलोक के ४ महेन्द्र, ब्रह्मदेवलोक के-५ ब्रह्मलोकेन्द्र, लांतक देवलोक के६ लांतकेन्द्र, महाशुक्र देवलोक के-७ महाशुक्रेन्द्र, सहस्रार देवलोक के-८ सहास्रारेन्द्र, आनत-प्राएत देवलोक के प्राणतेन्द्र और आरणअच्युत देवलोक के अच्युतेन्द्र हैं ।
-स्थानांग सूत्र ६४, पत्र
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org