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"चार कार्षापण एक अंडिका के बराबर था और चार अंडिका एक 'सुवर्ण' अथवा 'दीनार' के बराबर मानी जाती थी।"
जैन-ग्रन्थों में 'सुवण्ण' शब्द भी आता है । यह भी एक सोने का सिक्का था । इसका प्रमाण अनुयोगद्वार ( सूत्र १३२, पत्र १५५ - २, १५६ - १ ) की टीका में दिया है :
"""षोडष कर्णमाषका एकः सुवर्णः "
अर्थात् १६ माषक का एक सुवर्ण होता था । भगवती सूत्र, शतक २, उद्देशा ५, में आता है :
:
अशीति गुज प्रमाणे कनके
अर्थात् ८० गुंज की वजन का 'कनक' । 'सुवण्ण' के सम्बन्ध में मनुस्मृति में लिखा है : ---
सर्षपाः षट् यवो मध्यस्त्रियवं त्वेककृष्णलम् |
पञ्च कृष्णलको माषस्ते
सुवर्णस्तु षोडश ||
- अध्याय ८, श्लोक १३४ ।
६ गौर सर्षप का एक मध्यम, ३ जव की एक रत्ती ५ रत्ती का एक मासा और १६ मासे का एक सुवर्ण होता है ।
:–
ठीक ऐसा ही परिमाण अर्थशास्त्र में भी दिया है :धान्यमाषा दश सुवर्णमापक पञ्च वा गुञ्जाः ||२|| ते षोडश सुवर्णकर्षो वा ॥ ३ ॥ चतुः कर्ष पलकम् ||४||
- कौटिल्य अर्थशास्त्र २, १६, पृष्ठ १०३
- दश धान्यमाष ( उड़द के दाने) का सुवर्णमाष होता है और इतने ही का पाँच गुंजा ( रत्ती ) || २ || सोलह माष का एक सुवर्ण अथवा एक कर्ष होता है ||३|| चार कर्ष का एक पल होता है ॥४॥ यह सुवर्ण तोलने के बाटों का कथन किया गया है । इसको निम्न निर्दिष्ट रीति से दिखाया जा सकता है :
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