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(२११) पुरिमताल से भगवान् उन्नाग और गोभूमि होकर राजगृह पहुँचे और आठवाँ वर्षवास उन्होंने राजगृह' में किया । इस वर्षवास में भगवान ने चातुर्मासिक तप और विविध योग-क्रियाओं की साधना की। चातुर्मास समाप्त होते ही भगवान् ने राजगृह से विहार किया और बाहर जाकर चातुर्मासिक तप का पारना किया। १-आवश्यक चूरिण, प्रथम भाग, पत्र २६६ ।
नवाँ चतुर्मास भगवान् महावीर के मन में फिर विचार उठा-"अब भी बहुत से क्लिष्ट कर्म मेरी आत्मा के ऊपर चिपके हुए हैं। उन्हें शीघ्र नष्ट करने के लिए मुझे अभी अनार्य-देश में परिभ्रमण करना चाहिए; क्योंकि यहाँ के लोग मुझे जानते हैं, इससे कर्मों को नष्ट करने में विलम्ब हो रहा है । अतः पुनः अनार्य देश में जाना चाहिए।" ऐसा विचार करके उन्होंने राढ़देश की वज्रभूमि और सुम्हभूमि जैसे अनार्य प्रदेश में विचरना प्रारम्भ किया।
१-(अ) शास्त्रों में भगवान के लाढ़ देश में आने को कुछ लोग उनका अर्बुद
देश में विहार मानते हैं और इस लाढ़ अथवा राढ़ की समता लाट-देश से करते हैं। परन्तु, यह उनका भ्रम है । लाढ़ अथवा राढ़ देश की राजधानी कोटिवर्ष थी। उसके सम्बन्ध में हम यहाँ कुछ विद्वानों के मत दे रहे हैं :(१) राढ़-बंगाल का वह भाग जो गंगा के पश्चिम में स्थित है। उसमें तमलुक, मिदनापुर तथा हुगली और बर्दवान जिले सम्मिलित थे।
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