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सिद्धार्थपुर से भगवान् वैशाली पहुँचे । एक दिन बाहर आप कायोत्सर्ग में स्थिर थे, तब लड़कों ने आपको पिशाच समझकर खूब तंग किया । उस समय शङ्ख राजा, जो राजा सिद्धार्थ का मित्र था, भगवान् महावीर को पहचान कर उनसे मिलने आया और उनके चरणों में पड़ कर उसने उनकी वंदना की ।
वैशाली से भगवान् ने वाणिज्यग्राम की ओर प्रस्थान किया । वैशाली और वाणिज्यग्राम के मध्य में गण्डकी नदी बहती थी । भगवान् ने नाव द्वारा उस नदी को पार किया | किनारे पहुँचने पर नाविक ने किराया माँगा । भगवान् ने उसको कुछ उत्तर न दिया तो नाविक ने उन्हें रोंक रखा । उसी समय शंखं राजा का भांजा - चित्र, जो दूत - कार्य से कहीं गया हुआ थावहाँ आ गया और किराया देकर उसने भगवान् को मुक्त कराया और उनकी पूजा की ।
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वाणिज्यग्राम में जाकर नगर से बाहर भगवान् ध्यान में स्थिर हो गये । इस गांव में आनंद नामक एक श्रमणोपासक रहता था । निरन्तर छठ (दो दिन का उपवास ) की तपश्चर्या और आतापना के कारण आनंद को 'अवधिज्ञान ' ' ज्ञान की प्राप्ति हो गयी थी । भगवान् के आगमन की बात सुनकर वह उनके पास गया और वंदन करके बोला - "हे भगवन् ! आपका शरीर और मन दोनों ही वज्र के बने हैं । अतः, अति दुःसह परीषह और दारुण उपसर्गों के आने पर भी आपका शरीर टिका हुआ है । अब निकटभविष्य में ही आपको केवल ज्ञान की प्राप्ति होगी ।"
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वाणिज्यग्राम से विचरते हुए भगवान् श्रावस्ती पधारे और दसवाँ चातुमस आपने श्रावस्ती में किया । इस वर्षावास में भगवान् ने नाना प्रकार के तप किये और योगक्रियाओं की सिद्धि की ।
- आवश्यकचूरिण, प्रथम खण्ड, पत्र २६६ ।
२ - इन्द्रियमनोनिरपेक्षे आत्मनो रूपिद्रव्य साक्षात्कारकारणे ज्ञानभेदे स्था०
२ ठा०
आत्मा, इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना जिस ज्ञान से पदाथों को प्रत्यक्ष देखता है उस विशेष ज्ञान को अवधिज्ञान कहते हैं ।
३ – आवश्यक चूरिंग, प्रथम खण्ड, पत्र ३०० ।
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