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(१६१) भगवान् के प्रथम मासक्षमए (उपवास) की पारना विजय सेठ ने अत्यन्त भक्तिपूर्वक और आदर के साथ विविध भोजन-सामग्री से कराया। उस समय पंच दिव्य (तहियं गंधोदय पुप्फवासं, दिव्वा तहिं वसुहाराय वुट्ठा। पहताओ दुदुभीओ सुरेंहि आगासे अहोदाणं च घु? ।। उत्तराध्ययन, अध्ययन १२, गाथा ३६, पत्र १८२ । और 'वसुहारा' की टीका दी है : 'देवैः कृतायां स्वर्ण दीनाराणां वृष्टो) प्रकट हुए । उसको देखकर
[ पृष्ठ १६० की पाद-टिप्पणी का शेषांश ] ला ने गोशाला को चित्रकार का पुत्र लिखा है। 'डिक्शनरी आव पाली प्रापर नेम्स ' भाग २, पृष्ठ ४०० पर 'चित्र-विक्रेता' लिखा है । गोशाला का पिता मंखली 'मंख' था। वह न तो चित्रकार था और न चित्र-विक्रेता। चित्र दिखा कर जीवन-यापन करता था। ( उवासगदसाओ-हार्नेल का अनुवाद परिशिष्ट १, पृष्ठ १) मंख शब्द का अर्थ टीकाकारों ने किया है
‘चित्र फलकं हस्ते गतं यस्य स तथा ।
'पाइअसहमण्णवो' (पृष्ठ ८१६) में मंख का अर्थ दिया है-एक भिक्षुकजाति जो चित्र दिखा कर जीवन-निर्वाह करती है।
'मंख' शब्द पर 'हरिभद्रीयावश्यकवृत्ति टिप्पणकम्' में मलधारी हेमचन्द्र सूरि ने लिखा है-'केदार पट्टिकः' (पत्र २४-१ ) जिससे स्पष्ट है कि मंख शिव का चित्र लेकर भिक्षा माँगता था। ऐसा ही मत काटियर ने 'जर्नल आव एशियाटिक ( सोसाइटी १६१३, पृष्ठ ६७१-२ ) में प्रकट किया था। मेरे विचार से कार्पेटियर का विचार ठीक था।
५--गोशाला की माता नाम भद्रा था। एक बार मंखली और भद्रा शरवए नाम के सन्निवेश में एक ब्राह्मण की गोशाला में ठहरे हुए थे । भद्रा उस समय गर्भवती थी। यहाँ गोशाला में ही उसे पुत्र उत्पन्न हुआ, इस लिए उसका नाम गोशाला रखा गया । छोटी उम्र से उद्धत होने के कारण वह माँ-बाप से अलग हो गया और मंख-कार्य करके अपनी आजीविका चलाता और साधु के भेष में घूमता रहा। ( देखिए भगवती सूत्र, १५-वाँ शतक, उद्देसा १)
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