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मया जितश्वासौ षोडश सहस्राणि दीनाराणाम् उल्लेख आया है। (५-६) पञ्चतन्त्र (हर्टल-सम्पादित) में पृष्ठ १०६ पर दीनारसहस्रं तथा तंत्राख्यायिका (हर्टल-सम्पादित ) में पृष्ठ ४६ तथा ४७ पर
दीनार शब्द कई बार आया है । (७) राजतरंगिणी (आर० एस० पण्डित का अनुवाद ) में तरंग ३, श्लोक
१०३, (पृष्ठ ६७) तथा तरंग ५, श्लोक २०५ (पृष्ठ १७४) में भी दीनार शब्द आता है।
प्राचीन कोषों में भी 'दीनार' शब्द आया है। अभिधान चिन्तामणि कोष (भूमिकाण्ड, श्लोक ११२) में स्वयं हेमचन्द्राचार्य ने टीका में सिक्कों के वर्णन में दीनारादि लिखा है । वैजयन्ती कोष (पृष्ठ १८९, श्लोक ४१) में भी 'दीनार' शब्द आया है तथा कल्पद्र, कोष (खंड २, पृष्ठ ११३) में दीनार और निष्क शब्द समानार्थी बताये गये हैं।
मुद्राशास्त्रियों ने 'दीनार' का परिचय इस रूप में दिया है । डा. वासुदेव उपाध्याय ने अपनी पुस्तक 'भारतीय सिक्के' में (पृष्ठ १६-१७) लिखा है :
"रोम-राज्य के सोने के सिक्के 'दिनेरियस' कहे जाते थे, उन्हीं के नाम पर गुप्त सम्राटों ने 'दीनार' रखा । गुप्त-लेखों तथा साहित्य से इस बात की पुष्टि होती है। साँची के एक लेख में दीनार-दान देने का वर्णन मिलता है। 'पंचविंशति दीगरान्' तथा 'दत्ताः दीनारान्', 'दीनाराः द्वादश' आदि लेखों में प्रयुक्त मिलते हैं। गुप्त राजा बुधगुप्त (छठी शताब्दी) के दामोदरपुर-ताम्रपत्र में 'दीनार' सिक्के के लिए प्रयोग किया गया है। गुप्तकाल में दीनार के अतिरिक्त 'सुवर्ण' शब्द का भी प्रयोग सिक्के के लिए आया है। परन्तु, दीनार का प्रयोग बहुत समय तक प्रचलित रहा। दसवीं शताब्दी के मुसलमान यात्रियों सुलेमान तथा अल्-मसूदी ने 'दीनार' शब्द का प्रयोग सिक्कों के लिए किया है।"
और, पृष्ठ ३५ पर नारद, कात्यायन तथा वृहस्पति-स्मृतियों का उल्लेख करते हुए लिखा है :
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