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(१६७) कुलपति राजा सिद्धार्थ का मित्र था। भगवान् महावीर को आते हुए देखकर वह उनके सम्मान के लिए सामने गया। उससे मिलने के लिए भगवान् महावीर ने भी अपने दोनों हाथ बढ़ाये। कुलपति के अति आग्रह पर भगवान् ने एक रात्रि वहीं व्यतीत की। और, दूसरे दिन जाते हुए कुलपति ने अति आग्रहपूर्वक कहा- "हे कुमारश्रेष्ठ, इस आश्रम को आप किसी दूसरे का न समझे । यहाँ कुछ समय रहकर इस आश्रम को पवित्र करें और यह चातु. मास यहीं व्यतीत करें तो बहुत अच्छा।"
कुलपति की आग्रहपूर्ण विनती स्वीकार करके, भगवान् ने आगे विहार किया) और, समीपस्थ स्थानों में भ्रमण करके चातुर्मास के लिए वापस लौट उसी दूइज्जन्तक नामके आश्रम में आकर कुलपति के द्वारा बतलायी हुई पर्णकुटी में रहने लगे।
प्राणिमात्र के साथ मैत्रीभावना रखने वाले भगवान् महावीर को कुछ समय यहाँ ठहरने के बाद, यह स्वयं मालूम होने लगा कि, यहाँ शांति नहीं मिलेगी। किसी जीव को ज़रा-सी भी तकलीफ हो, ऐसा भगवान नहीं चाहते थे। वे सदा ध्यान में लीन रहते थे। संसार के समस्त पदार्थों पर यावत् अपने शरीर पर भी- उनको ममत्व भाव नहीं था। अपने और पराये का भाव तो उनमें किंचित् मात्र भी नहीं था। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' उनके जीवन का लक्ष्य था । पर, इन आश्रमवासियों की प्रवृत्ति सर्वथा भिन्न थी। उनको अपनी झोपड़ी तथा अपनी अन्य वस्तुयें प्राण से भी प्रिय थीं। वे सदा उनकी रक्षा में तत्पर रहा करते थे।
बरसात के दिन थे। धीरे-धीरे वर्षा हो रही थी। लेकिन, अभी घास नहीं उगी थी । अतः, क्षुधा से पीड़ित गायें आश्रम की झोपड़ियों को खाने के लिए झपटती थीं। अन्य सभी परिब्राजक उनको रोकते, भगाते अथवा मारते थे। लेकिन, भगवान् महावीर अपने ध्यान में ही लगे रहते । तापसों ने कुलपति से भगवान महावीर की शिकायत की कि, गायें झोपड़ी तक खा जाती हैं; पर महावीर उनको मारते या भगाते नहीं। कुलपति ने आकर भगवान महावीर से अति मधुर वचन में कहा-“हे कुमारवर, ऐसी उदा
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