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(१५६) यह पाल की पचास धनुष्य लम्बी, पच्चीस धनुष्य चौड़ी और छत्तीस धनुष्य ऊँची थी। इसमें बहुत से स्तम्भ थे तथा मरिण, रत्न आदि से वह सुशोभित थी।
इस प्रकार हेमन्त-ऋतु में, मार्गशीर्ष वदि १० और रविवार के दिन तीसरे पहर में विजय मुहूर्त में बेले२ की तपस्या करके शुद्ध लेश्यावाले भगवान् महावीर चन्द्रप्रभा नामक पालकी में पूर्व दिशा की ओर मुख करके सिंहासन पर बैठे । प्रभु की दाहिनी ओर हंस-लक्षण युक्त पट लेकर कुल-महत्तरिका बैठीं । बाईं ओर दीक्षा का उपकरण लेकर प्रभु की धाई-माँ बैठीं। पिछली और छत्र लिए एक तरुणी बैठी। ईशान-कोए में पूजा का कलश लेकर एक स्त्री बैठी और अग्नि-कोण में मणिमय पंखा लेकर एक अन्य रमणी बैठी। राजा नन्दिवर्धन की आज्ञा से पालकी उठायी गयी। उस समय शकेन्द्र दाहिनी भुजा को, ईशानेन्द्र बायीं भुजा को, चमरेन्द्र दक्षिण ओर के नीचे की बाँह को और बलीन्द्र उत्तर ओर के नीचे की बाँह को उठाये थे । इनके अतिरिक्त अन्य व्यन्तर भुवनपति, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों ने भी हाथ लगाया। उस समय देवताओं ने पुष्पों की वृष्टि की। भगवान् की पालकी के रत्नमय आगे अष्टमांगल चलने लगे। जुलूस के आगे-आगे भंभा, भेरी, मृदंग, आदि बाजे बजने लगे। बाजों के बाद बहुत-से (दंडीणो) डंडेवाले, (मुंडियो) मुण्डित मस्तकवाले, (सिहंढिणो) शिखाधारी, (जटिगो) जटाधारी, (हासकारा) हंसनेवाले, (दवकराः) परिहास करने वाले, ( खेड्डुकारा ) खेल करने वाले, (कंदप्पिया) काम-प्रधान क्रीडा करने वाले, ( कुक्कुत्तिया ) भांड, (गायंतया) गाते हुए, ( वायंतया ) बजाते हुए, ( नच्चंता ) नाचते हुए, (हसंतया) हंसते हुए, ( रमंतया) खेलते हुए, ( हसावेतया) हंसाते हुए, (रमातया) लोगों को क्रीड़ा कराते हुए जय-जयकार करते हुए पूरी मंडली रवाना हुई। उसके बाद उग्रकुल, भोगकुल, राजन्यकुल और क्षत्रियकुल कल्पसूत्र-१, सुबोधिका टीका पत्र २६६-२७०
२-दो उपवासों की तपस्या ३-कुल की बड़ी-बूढ़ी।
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