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(१५५) कहा-"जय जय नंदा ! जय जय भद्दा ! भदंते, जय जय खत्तियवरवसभा। बुज्झहि भगवन् !” “अर्थात् तेरी जय हो ! आनंदित हो ! हे भद्र ! तेरी जय हो! तेरा कल्याण हो! हे क्षत्रियवर वृषभ ! आप की जय हो, 'जय हो ! हे भगवन् ! आप दीक्षा ग्रहण करें। आप समस्त संसार में सकलजीवों के लिए हितकर धर्मतीर्थ की प्रवर्तना करें।" ऐसा कह कर वे पुनः 'जय-जय' शब्द का प्रयोग करने लगे और भगवान् को वंदन करके, नमस्कार करके जिस दिशा से वे आये थे उसी दिशा में चले गये।
भगवान् लोकान्तिक देवों से सम्बोधित होने के बाद, नन्दिवर्द्धन तथा सुपात्रं ( भगवान के चाचा ) आदि स्वजनों के पास गये और बोले-“अब मैं दीक्षा के लिए आपकी आज्ञा चाहता हूँ।" तब नन्दिवर्धन ने उनको अनुमति दे दी।
नन्दिवर्धन राजा ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-“एक हजार आठ सोने के, उतने ही चाँदी के, उतने ही रत्न के, उतने ही सोनेचाँदी के, उतने ही सोने-रत्नों के, उतने ही रत्न और चाँदी के, उतने ही सोने-चाँदी और रत्न के और उतने ही मिट्टी के (इस प्रकार के ८ जाति के) कलश तैयार कराओ।" कौटुम्बिकों ने इतने सब कलश और अन्य सामग्रियाँ एकत्र की। उसी समय शक्-देवेन्द्र का आसन प्रकम्पित हुआ। और, अवधिज्ञान से भगवान् का दीक्षा-समय जानकर वह वहाँ आया और जैसे उन्होंने ऋषभदेव का अभिषेक किया था, उसी प्रकार उन्होंने भगवान् महावीर का अभिषेक किया। नन्दिवर्धन ने भी भगवान् को पूर्वाभिमुख बिठला करके अभिषेक किया। उसके बाद भगवान् ने स्नान करके गंधकाषाय वस्त्र से शरीर पोंछ करके शरीर पर दिव्य चंदन का विलेपन किया। उस समय प्रभु का कंठ-प्रदेश कल्पवृक्ष के पुष्पों से निर्मित माला से सुशोभित लगता था। उनके सारे शरीर पर सुवर्णगंडित अंचल वाला स्वच्छ और एक लाख मूल्यवाला श्वेतवस्त्र सुशोभित हो रहा था। वक्षस्थल पर बहुमूल्य हार लटक रहा था। अंगद और कड़े से उनकी भुजाएँ और कुण्डलों से कान सुशोभित थे। इस प्रकार वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर भगवान् चन्द्रप्रभा नामक पालकी में बैठे।
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