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(१३५) गर्भ में ही भगवान् ने यह प्रतिज्ञा की-"माता-पिता के जीवित रहते मैं दीक्षा नहीं ग्रहण करूँगा। मेरे गर्भ में रहने पर ही जब माता का इतना स्नेह है, तो मेरे जन्म के बाद ये मुझे कितना स्नेह करेंगी।" ____ गर्भ को सुरक्षित जानकर माता त्रिशला ने स्नान किया, पूजन किया, तथा कौतुक-मंगल करके सर्व प्रकार के आभूषणों से विभूषित हुई। उस गर्भ को त्रिशला माता न अति ठण्ठे, न अति गर्म, न अति तीखे, न अति कड़वे, न अति कसैले, न अति खट्टे, न अति चिकने, न अति रूखे, न अति आर्द्र, न अति सूखे, सर्व ऋतुओं में सुखकारी इस प्रकार के भोजन, आच्छादन, गन्ध और पुष्प-माला आदि से पोषण करने लगी।
वृद्धा नारियाँ त्रिशला माता को उपदेश देतीं.--'हे देवि ! आप धीरेधीरे चला करें, धीरे-धीरे बोला करें, क्रोध को त्याग दें, पथ्य वस्तुओं का सेवन करें, नाड़ा ढीला बाँधा करें, खिलखिलाकर न हँसें, खुले आकाश में न बैठे, अतिशय ऊँचे या नीचे न जाएँ।" माता त्रिशला गर्भ के रक्षण के समस्त उपायों को कार्य में लातीं। . गर्भ के समय उनके मन में जो प्रशस्त दोहद (इच्छाएँ) उत्पन्न हुए, वे सब दोहद पूर्ण किये गये। इस प्रकार सभी इच्छाएँ पूर्ण होने पर दोहद शान्त हो गये।
- चैत्र मास की शुक्लपक्ष की त्रयोदशी के दिन, ६ मास और ७॥ दिन सम्पूर्ण होने पर, त्रिशला माता ने पुत्र को जन्म दिया । उस समय सभी ग्रह उच्च स्थान में थे। उस समय सातों ग्रह उच्च स्थानों में थे। उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग आया था। सब दिशाएँ शान्त और विशुद्ध थीं। सब शकुन जयविजय के सूचक हो रहे थे। वायु अनुकूल और मन्दमन्द चल रही थी। मेदिनी अनाज से परिपूर्ण थी। समग्र देश आनन्द में विभोर था। ऐसे समय मध्यरात्रि को ध्रुव योग, उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चंद्र का योग आने पर त्रिशला क्षत्रियाणी ने आरोग्यपूर्ण पुत्र को जन्म दिया ।
कल्पसूत्र की सुबोधिका टीका में ग्रहों की उच्चता इस प्रकार दर्शित की गयी है :
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