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माटुंबिय - कोडुम्बिय-मंति- महामंति- गणग-दोवारिय-अमच्च-वेडपीढमद्द - नगर-निगमसिठ्ठि - सेणावइ - सत्थवाह - दूअ - सन्धिवाल - सद्धि संपुरिबुडे..."
इसका अभिप्राय यह है कि, राजा सिद्धार्थ कल्पवृक्ष की भाँति मुकुटवस्त्र आदि से विभूषित 'नरेन्द' थे ( प्राचीन साहित्य में 'नरेन्द्र' शब्द का प्रयोग 'राजाओं' के लिए हुआ है ।) उनके नीचे निम्नलिखित पदाधिकारी थे :३. युवराज ४. तलवर ७. मंत्री
८. महामंत्री
११. अमात्य
१५. निगम
१६. दूत
१. गरणनायक
५. माडम्बिक
गरणक
१३. पीठमर्द्धक
१७. सेनापति
२. दण्डनायक
६. कौटुम्बिक
१०. दौवारिक
१४. नागर
१८. सार्थवाह
इन लोगों से राजा सिद्धार्थं परिवृत्त था । आवश्यकचूरिंग में भी यही वर्णन मिलता है ।
यदि डाक्टर याकोबी के मतानुसार सिद्धार्थ केवल 'उमराव' होते, तो उनके लिए 'श्रेष्ठी' शब्द का प्रयोग किया जाता, न कि, 'नरेन्द्र' का |
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१२. चेट
१६. श्रेष्ठी
२०. सन्धिपाल
'क्षत्रिय' शब्द का अर्थ साधारण 'क्षत्रिय' के अतिरिक्त 'राजा' भी होता है । इसकी पुष्टि टीकाकारों और कोषों से भी होती है । 'अभिधानचिन्तामणि' में आता है
" क्षत्रं तु क्षत्रियो राजा राजन्यो बाहुसंभवः । '
सिद्ध है कि 'क्षत्रिय', 'क्षत्र' आदि शब्दों का प्रयोग राजा के लिए भी होता है ! ' प्रवचन सारोद्वार' सटीक में एक स्थान पर आता है— 'महसेणे य खत्तिए'' इस पर टीकाकार ने लिखा है - चन्द्रप्रभस्य महासेनः क्षत्रियो राजा"" । इससे स्पष्ट है कि, प्राचीन परम्परा में 'राजा' के स्थान
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१- अभिधानचिन्तामणि सटीक, पृष्ठ - ३४४ २- प्रवचन सारोद्धार सटीक, पत्र ८४
३ - वही सटीक, पत्र ८४
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