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ततः प्रतस्थे भगवान् ग्रामं वाणिजकं प्रति । मार्गे गंडकिकां नाम नदी नावोत्ततार च ॥ १३९ ॥
__ -त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, पर्व १०, सर्ग ४, पत्र ४५ --अर्थात् भगवान वैशाली से वाणियागाम की ओर चले और रास्ते में उन्हें गण्डकी नदी को पार करना पड़ा। . (२)-(३) ऊपर हमने सप्रमाण यह स्थापना की है कि, वैशाली ब्राह्मणकुण्ड, क्षत्रियकुण्ड गण्डकी के पूर्वी तट पर थे और कारग्राम, कोल्लाग सन्निवेश, वाणिज्यग्राम और द्विपलाश चैत्य पश्चिमी तट पर ।' ये वस्तुतः एक ही नगर के भिन्न-भिन्न नाम नहीं थे। स्थान-स्थान पर भगवान् का एक नगर से दूसरे नगर में जाने का वर्णन शास्त्रों में मिलता है । इसके अतिरिक्त जहाँ कहीं दो नगरों का नाम एकत्र आया भी है, तो उसे वर्तमान प्रयोग की भाँति समझना चाहिए-जैसे हम भाषा में कह देते हैं-दिल्लीआगरा, जयपुर-जोधपुर, लाहौर-अमृतसर, बनिया-बसाढ़। यहाँ इकट्ठे इस प्रयोग का अभिप्राय उनकी निकटता बताना मात्र होता है ।
(४) डा० हारनेल ने कोल्लागसन्निवेश के निकट एक द्विपलाश चैत्य उद्यान (दूइपलास उज्जाग) बताया है और उस पर नाय-कुल का अधिकार बताया है। डाक्टर साहब की सम्मति में 'नायसण्ड उज्जाण' और 'दूइ
१- 'श्रमण भगवान् महावीर' नामक पुस्तक के पृष्ठ ५पर स्थिति इस प्रकार बताई गयी है- "वैशाली के पश्चिम परिसर गण्डकी नदी बहती थी। उसके पश्चिम तट पर स्थित ब्राह्मणकुण्डपुर, क्षत्रियकुण्डपुर, वाणिज्यग्राम,
और कोल्लागसन्निवेश जैसे अनेक रमणीय उपनगर और शाखापुर अपनी अतुल समृद्धि से वैशाली की श्रीवृद्धि कर रहे थे। हमारी सम्मत्ति में यह स्थिति ठीक नहीं है। ___ श्री बलदेव उपाध्याय ने 'धर्म और दर्शन' में पृष्ठ ८५ पर इसी मान्यता को दोहराया है । मेरे विचार में उन्होंने भी "श्रमए भगवान् महावीर" के लेखक का ही अनुसरण किया है।
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