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उत्तर क्षत्रियकुण्ड-सन्निवेश में ज्ञातृक्षात्रियों के काश्यपगोत्रीय सिद्धार्थ क्षत्रिय की (पत्नी) वाशिष्ठ गोत्रीय त्रिशला क्षत्रियाणी की कुक्षि में अशुभ पुद्गलों को हटा कर शुभ पुद्गलों का प्रक्षेप करके गर्भ-प्रवेश कराता है।
३-भगवान् को आचाराङ्ग आदि सूत्रों में 'विदेह' (विदेहवासी) कहा गया है । यद्यपि टीकाकारों ने इसके एकही-जैसे अर्थ किये हैं; पर वे ठीक नहीं हैं । नीचे हम 'कल्पसूत्र' के आधार पर 'विदेह' के अर्थ का स्पष्टीकरण करते हैं । उससे पाठकगए अपना निष्कर्ष निकाल सकते हैं ।
(क) कल्पसूत्र में आया विदेह-सम्बन्धी पाठ निम्नलिखित रूप
"नाए नायपुत्ते नायकुलचन्दे विदेह विदेहदिन्ने विदेहजच्चे विदेहसूमाले तीसं वासाई विदेहसि कट्ट ।"--सूत्र ११०
यही पाठ आचाराङ्ग-सूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, भावना अध्ययन, सू० ४०२ पत्र ३८६।२ में भी है।
कल्पसूत्र की 'सुबोधिका-टीका' में श्री विनयविजय जी उपाध्याय ने 'विदेह' शब्द का अर्थ इस रूप में किया गया है :--
"(विदेहे) वज्रऋषभनाराचसंहननसमचतुरस्रसंस्थानमनोहरत्वाद् विशिष्टो देहो यस्य स विदेहः” (पत्र २६२, २६३) :
पर, यह अर्थ संगत नहीं है । मालूम पड़ता है कि, 'आवश्यकचूरिण' के पाठ की ओर उनका ध्यान नहीं गया। अगर गया होता, तो ऐसा अर्थ वे न करते । 'आवश्यक-चूरिण' का पाठ इस रूप में है :--
...णाते णातपुत्ते णातकुलविणिवढे विदेहे विदेहदिन्ने विदेहजच्चे विदेहसूमाले सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसहिते वज्जरिसभणारायसंघयणे अणुलोमवायुवेगे कंकग्गहणी कवोयपरिणामे।"
--ऋ. के. पेढी. रतलाम-प्रकाशित 'आवश्यक-चूणि,' पत्र २६२ इसमें 'विदेह' शब्द अलग होते हुए भी, 'कल्पसूत्र' के टीकाकार ने जो अर्थ किया है, वह यहाँ पृथक रूप से
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