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में सुषमा-दुषमा नामक तीसरे आरे में, केवल तीन वर्ष और साढ़े आठ महीने शेष रहने पर ( तीसरे आरे के नवासी पक्ष शेष रहने पर) शरद ऋतु के तीसरे महीने, पाँचवे पक्ष में माघ मास की कृष्ण त्रयोदशी के दिन, अष्टापद पर्वत के शिखर पर दश हजार साधुओं के साथ चौविहार, छः उपवासों का तप करके अभिजित नामक नक्षत्र में चन्द्रयोग प्राप्त होने पर, प्रातः समय पल्यङ्कासन से बैठे हुए निर्वाण को प्राप्त हुए ।
भगवान ऋषभदेव के पश्चात् क्रमशः ये तीर्थङ्कर हुए :
२ अजित, ३ संभव, ४ अभिनन्दन, ५ सुमति, ६ पद्मप्रभ, ७ सुपा, ८ चन्द्रप्रभ, ९ सुविधि ( पुष्पदन्त), १० शीतल, ११ श्रेयांस (यान्) १२ वासुपूज्य, १३ विमल, १४ अनन्त (अनन्त जित), १५ धर्म, १६ शान्ति, १७ कुन्थु, १८ अर, १६ मल्लि, २० मुनिसुव्रत (सुव्रत ), २१ नमि, २२ नेमि (अरिष्टनेमि )
इनके पश्चात् २३-वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान् हुए ।
(१) पद्मासन
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