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(५७) "सहोवाच । विदेघो (हो) माथ (ध) वः क्वाभवानीत्यत एवहे प्राचीनं भुवनमिहिहोवा च । सैषा तर्हि कोशलविदेहानां मर्यादा तेहि माथ (ध) वाः ।१७।। २--'शक्ति-सङ्गम-तंत्र' में लिखा है :--
गण्डकीतीरमारभ्य चम्पारण्यान्तकं शिवे ।
विदेहभूः समाख्याता तीरभुक्त्याभिधो मनुः ॥ ---गण्डकी नदी से लेकर चम्पारन तक का प्रदेश विदेह अथवा तीरभुक्ति के नाम से प्रसिद्ध था।
३–'बृहत् विष्णु-पुराण' के मिथिला-खण्ड में विदेह के सम्बन्ध में निम्नलिखित उल्लेख मिलता है :
एषा तु मिथिला राजन् विष्णुसायुज्यकारिणी
वैदेही तु स्वयं यस्मात् सकृद् ग्रन्थि, वमोचिनी॥ उसी ग्रन्थ में और उल्लेख आया है :
गङ्गा हिमवतोमध्ये नदीपञ्चदशान्तरे। तैरभुक्तिरिति ख्यातो देशः परमपावनः ।। कौशिकी तु समारभ्य गण्डकीमधिगम्य वै। योजनानि चतुर्विंशत् व्यायामः परिकीर्तितः।। गङ्गाप्रवाहमारभ्य यावद्धैमवतं वनम् । विस्तारः षोडशः प्रोक्तो देशस्य कुलनन्दन ।। मिथिला नाम नगरी तत्रास्ते लोकविश्रुता।
पञ्चभिः कारणैः पुण्या विख्याता जगतीत्रये ॥ (३) इन श्लोकों के अनुसार विदेह के पूर्व में कौशिका ( आधुनिक कोशी), पश्चिम में गण्डकी, दक्षिण में गङ्गा और उत्तर में हिमालय प्रदेश था । उसका विस्तार पूर्व से पश्चिम तक १८० मील ( २४ योजन) और उत्तर से दक्षिण तक १२५ मील (१६ योजन ) था। इस तीरभुक्ति अथवा विदेह में मिथिला नामक नगर था। (१) शतपथ ब्राह्मण, प्रथम काण्ड, अ० ४, आ० १,१७ । (२) वृहत् विष्णु-पुराण, 'मिथिला खंड'। (३) वही
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