Book Title: Pramey Kamal Marttand Part 1
Author(s): Prabhachandracharya, Jinmati Mata
Publisher: Lala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
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प्रतिज्ञाश्लोक:
प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः ।
इति वक्ष्ये तयोलक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः ।।१।। सम्बन्धाभिधेयशक्यानुष्ठानेष्ट प्रयोजनवन्ति हि शास्त्राणि प्रेक्षावद्भिराद्रियन्ते नेतराणि-सम्बंधाभिधेयरहितस्योन्मत्तादिवाक्यवत् ; तद्वतोऽप्यप्रयोजनवत: काकदन्तपरीक्षावत् ; अनभिमतप्रयोजनवतो
प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विपर्ययः ।
इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्पं लघीयसः ।।१।। प्रमाण से अर्थ की सिद्धि होती है और प्रमाणाभास से विपर्यय-अर्थ की सिद्धि नहीं होती है, इसलिये उन दोनों का याने प्रमाण और प्रमाणाभास का लक्षण जो कि पूर्वाचार्य प्रणीत है तथा जिसमें अल्प अक्षर हैं ऐसे लक्षण को अल्पबुद्धिवाले भव्यजीवों के लिये कहूंगा
भावार्थ-श्री माणिक्यनंदी आचार्य ने परीक्षामुख नामक ग्रन्थ को सूत्र बद्ध रचा है, इस ग्रन्थ के प्रारंभ में मंगल स्वरूप मंगलाचरण श्लोक कहा है, उसमें अपने ग्रन्थ रचना के विषय में दो विशेषण दिये हैं, एक अल्पम् और दूसरा सिद्धम्, यह ग्रन्थ सूत्र-रूप है और सूत्र का लक्षण श्लोक-अल्पाक्षरमसंदिग्धं, सारवद्विश्वतो मुखम् । अस्तोभमनवद्य च सूत्रं सूत्रविदो विदुः ।। १।। जिसमें अक्षर थोड़े हों जो संशय रहित हो, सारभूत हो, जगत्प्रसिद्ध शब्दों के प्रयोग से युक्त हो अर्थात् जिसमें जगत् प्रसिद्ध पदों का प्रयोग हो, विस्तृत न हो और निर्दोष हो ऐसी ग्रन्थ रत्तना या शब्द रचना को सूत्रों के जानने वालों ने सूत्र कहा है । इस प्रकार का सूत्र का लक्षण इस परीक्षामुख ग्रन्थ में पूर्णरूप से मौजूद है, अतः श्री माणिक्यनंदी प्राचार्य ने अपने इस मंगलाचरणरूप प्रथम श्लोक में कहा है कि मैं अल्प में अल्पाक्षररूप में ही इस ग्रन्थ की रचना करूगा । दूसरा विशेषण "सिद्धम्" है, यह विशेषण ग्रन्थ की प्रामाणिकता को सिद्ध करता है, अर्थात् श्री माणिक्यनंदी आचार्य कहते हैं कि मैं जो भी ग्रन्थ रचना करूंगा उसमें सभी प्रकरण पूर्वाचार्य प्रसिद्ध ही रहेंगे मैं अपनी तरफ से नहीं लिखूगा, इस प्रकार आचार्य ने अपनी लघुता और ग्रन्थ की प्रामाणिकता बतलाई है।
शास्त्र संबंधाभिधेय, शक्यानुष्ठान, और इष्ट प्रयोजन से युक्त हुआ करते हैं उन्हीं का बुद्धिमान् आदर करते हैं, अन्य का नहीं, जैसे उन्मत्त पुरुष के संबध रहित
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