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मुहूर्तराज ]
गणापवाद
गर्गमत में - (पीयूषधारा टीका वि.प्र. श्लोक ३० वाँ)
ग्रहमैत्री च राशिश्च विद्यते नियतं यदि । न गाभावजनितं दूषणं स्याद् विरोधदम् ॥
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अर्थ - यदि वर वधू की राशि के स्वामी ग्रहों की पारस्परिक मैत्री हो अथवा दोनों के राशि स्वामी एक ही हों और यदि राशिकूट भी श्रेष्ठ हो अर्थात् मिल जाए तो गण के विपरीत होने पर जो दोष होता है वह दोष विरोधकारी नहीं है । सारांश यह कि ग्रहमैत्री और राशिकूट मिल जाने पर गणकूट देखने आवश्यकता नहीं रहती ।
७. राशिकूट - (मु.चि. वि.प्र. श्लो. ३१ वाँ)
मृत्युः षष्ठाष्टके ज्ञेयोऽपत्यहानिर्नवात्मजे । द्विर्द्धादशे निर्धनत्वं द्वयोरन्यत्र सौख्यकृत् ॥
अन्वय - द्वयोः (स्त्रीपुंसराश्योः) परस्परं षष्ठाष्टके (षष्ठाष्टमराशित्वे सति) मृत्युः ज्ञेयः । (यथा मेषकन्ययोः मेष वृश्चिकयोः) अथ नवात्मजे (वर वधू राश्योः नवमपञ्चमत्वे सति) अपत्यहानिः (भवति) । (यथा सिंह धनुषोः) तथा द्विर्द्वादशे (सति) निर्धनत्वम् ( दरिद्रता ) अन्यत्र (तृतीयैकादशत्वे, चतुर्थदशमत्वे, सप्तसप्तमत्वे वा) सौख्यकृत् (पाणिपीडनम् इति शेषः )
अर्थ - स्त्री - पुरुष की राशियों में परस्पर षष्ठाष्टक हो अर्थात् पुरुष की राशि स्त्री की राशि से छठी अथवा आठवीं हो अथवा स्त्री की राशि से पुरुष की राशि छठी या आठवीं हो तो मृत्युकारक है जैसे मेष और कन्या अथवा मेष और वृश्चिक । इसी प्रकार वर वधू की राशियाँ परस्पर नवीं पांचवीं हो तो उनके सन्तान का नाश होता है। और यदि दोनों की राशियों में द्विर्द्वादश भाव हो अर्थात् दोनों की राशियाँ परस्पर दूसरी या बारहवीं हो तो दरिद्रता होती है। इसके अतिरिक्त यदि दोनों की राशियाँ परस्पर तीसरी, ग्यारहवीं, चौथी, दसवीं और सातवीं सातवीं हो तो विवाह सुखकारी होता है।
वैरषष्टकाष्टक - नारद मत में -
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वैरषट्काष्टकं मेषकन्ययोः घटमीनयोः । चापोक्षयोर्नृयुक्कीटभयोः कुंभकुलीरयोः ॥ पंचास्यमृगयोर्जन्म प्रोक्तोऽ शुभप्रदः ॥
अर्थ - मेष और कन्या राशियों का, तुला और मीन राशियों का, धनु और वृष राशियों का मिथुन और वृश्चिक राशियों का, कुंभ और कर्क राशियों का, सिंह और मकर राशियों का षट्काष्टक वैर षष्टाष्टक कहा गया है। यह अशुभफलदायी है।
मित्रषट्काष्टकं के विषय में - जगन्मोहन
मित्रषट्काष्टकं
कीटमेषयोर्वृषजूकयोः । कर्किचापभयोर्मीनसिंहयोर्मृगयुग्मयोः ॥ कन्यकाकुंभयोरन्यत् प्रत्यत्नाद्विविवर्जयेत् ।
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