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मुहूर्तराज ] आनन्दादियोगों की वर्त्य घटिकाएँ (घड़ियाँ) (मु.चि. शु. प्र. श्लो. २६ वाँ)
ध्वाक्षे वज्रे मुद्गरे चेषुनाड्यो वा वेदाः पद्यतुंबेगदेऽश्वाः ।
धूमे काणे मौसले भूद्वयं द्वे रक्षोमृत्यूत्पाकालाश्च सर्वे ॥ अन्वय - ध्वांक्षे वज्रे मुद्गरे च (योगे सति तद्योगस्याद्याः) इषुनाडचो वाः, पद्मटुंबे (एतयोर्योगयोः) वेदाः (चतस्रः) नाड्यः, धूमे भूः आद्यैका नाडी, काणे (आद्यं) द्वयम् (घटीद्वयम्) मौसले द्वे (द्वे नाड्यौ) (वाः करणीयाः) रक्षोमृत्युत्पातकालाश्च (एते योगा:) सर्वेऽपि (यावद्घटिकाः) त्याज्याः। विशेष:- अत्र श्लोके अनुक्तेऽपि चरयोगे घटिकात्रयम् वय॑म् उक्तं च ज्योतिस्सार सागरे
ध्वांक्षेन्द्रायुधमुद्गरेषु घटिकास्त्याज्यास्तु पंचादितः , पद्यालुंबकयोश्चतस्र उदिता धूने सदैका पुनः । द्वे काणे मुसलाह्वयेऽपिच गदे, सप्तैव तिस्रश्चरे , मृत्यूत्पातकरक्षसां दिनगतास्ताः कालदण्डे तथा ॥
अत्र दिनशब्दः अहोरात्रसूचकः । अर्थ - ध्वांक्ष, वज्र एवं मुद्गर योग की आदि की ५-५ घड़ियाँ पद्म और लुम्बक की आदि की ४ घड़ियाँ, गद योग की आदि की सात घड़ियाँ, धूम्रयोग की एक घड़ी, काण और मुसल की दो-दो घड़ियाँ शुभ कृत्यों में वर्जनीय हैं। किन्तु रक्ष, मृत्यु, उत्पात्त और कालदण्ड ये चार योग तो पूरे के पूरे (जितनी घड़ियों के हों, उतने) त्याज्य ही हैं।
यहाँ कुछ विशेष बात कही जाती है कि इस ऊपर के श्लोक में चर योग की घटियों के त्याग के विषय में चर्चा नहीं है, किन्तु ज्योतिस्सार सागर में चर योग की भी आदि की तीन घड़ियों को छोड़ने का निर्देश है यथा - “तिस्रश्चरे” इस अंश में देखिए। अमृतसिद्धियोग - (र.मा.भा.)
न मृता सिद्धिर्यत्र सः अमृतसिद्धिः । हस्तसौभ्याश्विनीमैत्रपुष्यपौष्णविरंचितैः ।
भवत्यमृतसिद्धयाख्यो योगः सूर्यादिवारगैः ॥ अन्वय - सूर्यादिवारगैः हस्तसौम्याश्विनीमैत्रपुष्यपौष्णविरंचितैः (हस्तमृगशिरोऽश्विनीमैत्र पुष्यरेवतीरोहिणीनक्षत्रैः) सिद्धि: अमृतसिद्धिनामक: योग: (भवति)।
रविवार को हस्त के, सोम को मृगशिरा के, मंगल को अश्विनी के, बुध को अनुराधा के, गुरु को पुष्य के, शुक्र को रेवती के और शनि को रोहिणी के योग से अमृतसिद्धि नामक योग बनता है, जो कि समस्त शुभकृत्यों में अवश्यमेव सिद्धिदायी होता है।
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