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मुहूर्तराज ]
[२१९ ___अर्थात् - यदि भवनद्वार गली से विद्ध हो तो गृहस्वामी का नाश, वृक्ष विद्ध हो कुमारदोषदायी, द्वार के सम्मुख कीचड़ सतत बना रहे तो शोक प्रणालिका नाली हो तो अधिक व्यय, कूप हो तो अपस्मार रोग, देवप्रतिभा विद्ध हो तो विनाश ये फल होते हैं। तथा वास्तुमध्यभाग को ब्रह्मस्थान कहते हैं, वहाँ पर भी द्वार का होना कुलनाशकारी है। वास्तुमध्यद्वार का निषेध एवं विधान करते हुए विश्वकर्मा कहते हैं
"गृहमध्ये कृतं द्वारं द्रव्यधान्य विनाशकृत्"
अर्थात् - गृहमध्य में द्वार करने से द्रव्य एवं धान्य का विनाश होता है। किन्तु
देवागारे विहारे च प्रपायां मण्डपेषु च ।
प्रतोल्यां च मखे वास्तुमध्ये द्वारं निवेशयेत् ॥ देवालय, विहारभवन, प्याऊ, मण्डप, प्रतोली एवं यज्ञादि में वास्तुमध्य द्वार अशुभ नहीं प्रत्युत लगाना ही चाहिए। अर्थात् इन स्थानों में गृहान्तर्गतद्वार बैठाने से ब्रह्मवेध नहीं लगता।
इति श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरान्तेवासि मुनिश्री गुलाबविजय संगृहीते मुहूर्तराजे वास्तुप्रकरणाभिधानम् चतुर्थम् प्रकरणम् समाप्तम्
जीवन की प्रत्येक पल सारगर्भित है। उसमें विषयादि प्रमादों को कभी अवकाश नहीं देना चाहिये, तभी वे पलें सार्थक होती हैं। सत्रकार कहते हैं कि 'कालो कालं समायरे।' जो कार्य जिस समय में नियत किया है, उसको उसी समय में कर लेना चाहिये, क्योंकि समय कायम रहने का कोई भरोसा नहीं है। निर्दयता से जीवों का वध करने, असत्य भाषण करने, किसी की धनादि-वस्तु का हरण करने, परस्त्री गमन करने, परिग्रह का अतिलोभ रखने और व्रतप्रत्याख्यानों का खाली ढोंग रचने से मनुष्य मर कर नरक में जाता है और वहाँ उसको अनेक यातनाएँ उठानी पड़ती हैं। इसलिए नरक गमन गोग्य बातें सर्वथा त्याग देना चाहिये।
-श्री राजेन्द्रसूरि
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