________________
मुहूर्तराज ]
अब नीचे इन तीनों प्रकार की कर्तरी को स्पष्टतया ज्ञात करने हेतु छः कुण्डलियाँ दी जा रही हैं ।
चन्द्रकर्तरी (अ.दु.)
३
३
३
२ रा.
४
६
४
मार्गी अथवा वकी
२ म
६
लग्नकर्तरी (अतिदुष्टा)
मार्गी
२.म.
૪
६
१
८
लग्नकर्तरी (मध्यमदुष्टा )
Jain Education International
१
७
शीघ्रगति २श. मागी
१०
८
लग्नकर्तरी (स्वल्पदुष्टा )
रा. वक्री
१२
67
मार्गी अथवा वकी
१२.म.
१०
१०
११
९
११
११
९
३ चं.
३ च.
३ चं.
शीघ्रगनिरश.
मागी
रा. ४
६
मार्गी अथवा वकी
२ शं.
मार्गी अथवा वकी
४ म.
६
रा. वक्री
४ मं.
★ मार्गी
६
चन्द्रकर्तरी (म.दु.)
१
१
१२
For Private & Personal Use Only
१०
पूर्वं पश्चात् पापात् तिंथ्यंशा घाटमध्यगश्चन्द्रः । वर्जयितव्या योगे यस्माद् राश्यंशरश्मियुति ॥
८
चन्द्रकर्तरी (स्व. दु.)
१२
१०
१२
१०
[ २४५
१५.
११
यदि कदाचित् अन्य लग्न के ( कर्तरीदोषरहित ) न मिलने पर यदि कर्तरी युक्त लग्न ही लेना पड़े तो लग्न के दोनों ओर के १५-१५ अंशों के भीतर की कर्तरी को त्याग कर १५-१५ अंशों के बाहर की कर्तरी ग्राह्य कर लेनी चाहिए ।
११
इसी प्रकार चन्द्र के भी दोनों ओर १५-१५ अंशों के भीतर की कर्तरी त्यागनी चाहिए, बाहर की कर्तरी ग्रहण की जा सकती है।
यथा व्यवहार में -
९
अर्थ - चन्द्र के पूर्व और अनन्तर पन्द्रह अंशों के भीतर जो पापग्रहरूपी कर्तरी हो तो वह त्याज्य है क्योंकि वह राशि एवं अंशादियों की युति कहलाती है ।
www.jainelibrary.org