Book Title: Muhurtraj
Author(s): Jayprabhvijay
Publisher: Rajendra Pravachan Karyalay Khudala

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Page 477
________________ ४०८ ] [ मुहूर्तराज ज्योतिष के खगोल विषयक विचार इसमें प्रदर्शित किये गये हैं। यह ग्रन्थ प्रकाशित नहीं है। ___ मण्डल प्रकरण टीका : 'मण्डल प्रकरण' पर मूल प्राकृत ग्रन्थ के रचियता विनय कुशल ने ही स्वो पज्ञ टीका करीब वि.सं. १६५२ में लिखी है, जो १२३१ ग्रन्थान प्रमाण है। यह टीका छपी नहीं है।' भद्रबाहु संहिता : ____ आज जो संस्कृत में 'भद्रबाहु संहिता' नाम का ग्रन्थ मिलता है वह तो आचार्य भद्रबाहु द्वारा प्राकृत में रचित ग्रन्थ के उद्धार के रूप में है। ऐसा विद्वानों का मन्तव्य है। वस्तुतः भद्रबाहु रचित ग्रन्थ प्राकृत में था जिसका उद्धरण उपाध्याय मेघविजयजी द्वारा रचित वर्ष प्रबोध ग्रन्थ (पृष्ठ ४२६-२७) में मिलता है। यह ग्रन्थ प्राप्त न होने से इसके विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता है। ___ इस नाम का जो ग्रन्थ संस्कृत में रचा हुआ प्रकाश में आया है उसमें २७ प्रकरण इस प्रकार है। १. ग्रन्थाग्रसंचय, २-३ उल्कालक्षण, ४. परिवेषवर्णन, ५. विद्युल्लक्षण, ६. अग्रलक्षण, ७. संध्यालक्षण, ८. मेघकाण्ड, ९. वातलक्षण, १०. सकलमार समुच्चय वर्षण, ११. गन्धर्वनगर, १२. गर्भवातलक्षण, १३. राज यात्राध्याय, १४. सकल शुभाशुभ व्याख्यान विधान कथन, १५. भगवत्रिलोकपति दैत्यगुरु, १६. श्नेश्चरचार, १७. बृहस्पतिचार, १८. बुधचार, १९. अंगारक चार, २०-२१. राहुचार, २२. आदित्यचार, २३. चन्द्रचार, २४. ग्रहयुद्ध, २५. संग्रहयोगार्ध काण्ड, २६. स्वप्नाध्याय, २७. वस्त्र व्यवहार निमित्तक, परिशिष्ठाध्याय-वस्त्र विच्छेदनाध्याय। कई विद्वान इस ग्रन्थ को भद्रबाहु का नहीं अपितु उनके नाम से अन्य द्वारा रचित मानते हैं। मुनि श्री जीनविजयजी इसे बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी की रचना मानते हैं। जब कि पं. श्री कल्याणविजयजी इस ग्रन्थ को पन्द्रहवीं शताब्दी के बाद का मानते हैं। इस मान्यता का कारण बताते हुए वे कहते हैं कि इसकी भाषा बिलकुल सरल एवं हल्की कोटि की संस्कृत है। रचना में अनेक प्रकार की विषय सम्बन्धी तथा छन्दों विषयक अशुद्धियाँ हैं। इसका निर्माता प्रथम श्रेणी का विद्वान नहीं था। 'सोरठ' जैसे शब्द प्रयोगों से भी इसका लेखक पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी का ज्ञात होता है। इसके सम्पादक पं. नेमीचन्द्रजी इसे अनुमानतः अष्टम शताब्दी की कृति बताते हैं। उनका यह अनुमान निराधार है। पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार ने इसे सत्रहवीं शती के एक भट्टारक के समय की कृति बताया है। जो ठीक मालुम होता है। ज्योतिषसार : ___ आचार्य नरचन्द्रसूरि ने 'ज्योतिषसार' (नारचन्द्र ज्योतिष) नामक ग्रन्थ की रचना वि.सं. १२८० में २५७ पदों में की है। ये मलधारी गच्छ के आचार्य देवप्रभसूरि के शिष्य थे। १. इसकी प्रति ला. द. भा. संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद में है। हिन्दी भाषानुवाद सहित भारतीय ज्ञानपीठ, काशी सन् १९५९। देखिए निबन्ध निचय पृष्ठ २९७। ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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